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________________ नवम अध्ययन : विनयसमाधि देखे जाते हैं।' यहां देव शब्द ज्योतिष और वैमानिक देवों का वाचक है, यक्ष व्यन्तर देवों का और गुह्यक भवनपति देवों का वाचक है। 'उववज्झा' आदि शब्दों के विशेषार्थ उववज्झा : दो रूप, दो अर्थ - ( १ ) उपवाह्य सवारी के काम में आने वाले वाहन — हाथी या घोड़ा, (२) औपवाह्य राजा आदि के प्रिय कर्मचारियों की सवारी के काम में आने वाले। छाया विगलिंदिया : विगलितिंदिया दो अर्थ – (१) छाया— क्षतविक्षत, घायल, अथवा शोभाविकलित एवं इन्द्रियविकल, (२) इन्द्रियां विषयग्रहण में असमर्थ हों, अथवा नाक, हाथ, पैर आदि कटे हुए हों वे विकलितेन्द्रिय कहलाते हैं।' आभियोग्य— अभियोगी — दास, आभियोग्य—— दासता । दास का कार्य केवल आज्ञापालन होता है । लौकिकविनय की तरह लोकोत्तरविनय की अनिवार्यता ४. ४८०. जे आयरिय - उवज्झायणं सुस्सूसा वयणंकरा । सिं सिक्खा पवडुंति जलसित्ता इव पायवा ॥ १२ ॥ ४८१. अप्पणट्टा परट्ठा वा सिप्पा णेउणियाणि य । गिहिणो उवभोगट्ठा इहलोगस्स कारणा ॥ १३॥ ४८२. जेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं । सिक्खमाणा नियच्छंति जुत्ता ते ललिइंदिया ॥ १४ ॥ ४८३. ते वि तं गुरुं पूयंति तस्स सिप्पस्स कारणा । सक्कारंति नमंसंत्ति तुट्ठा निद्देसवत्तिणो ॥ १५॥ ४८४. किं पुण जे सुयग्गाही अणंतहियकामए । आयरिया जं वए भिक्खू तम्हा ते नाइवत्तए ॥ १६॥ [४८०] जो साधक आचार्य और उपाध्याय की सेवा-शुश्रूषा करते हैं, उनके वचनों का पालन (आज्ञापालन ) करते हैं, उनकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है, जिस प्रकार जल से (भलीभांति) सींचे हुए वृक्ष बढ़ते हैं ॥ १२ ॥ [४८१-४८२] जो गृहस्थ लोग इस लोक (में आजीविका ) के निमित्त, (अथवा लौकिक) सुखोपभोग के लिए, अपने या दूसरों के लिए, (कलागुरु से) शिल्पकलाएं या नैपुण्यकलाएं सीखते हैं। कलाओं को सीखने में लगे हुए, ललितेन्द्रिय (सुकुमार राजकुमार आदि ) व्यक्ति भी कला सीखते समय ५. ३२५ (क) दसवेयालियं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त), पृ. ६४ (ख) दशवै. (आ. आत्मा.), पृ. ८६८ से ८८० (क) ‘उपवाह्यानां राजादिवल्लभानामेते कर्मकरा, इत्यौपवाह्याः ।' — हारि. वृत्ति, पत्र २४८ (ख) छाया सोभा सा पुण सरूवता, सविसयगहणसामत्थं वा । छायातो विकलेंदियाणि जेसिं ते । छायाविगलेंदिया विगलितेन्द्रियाः अपनीतनासिकादीन्द्रियाः । ( ग ) छाता :- कसघातव्रणांकितशरीराः । (घ) अभियोगः आज्ञाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीति अभियोगी, तद्भावः आभियोग्यं कर्मकरत्वमित्यर्थः । - हारि. टीका, पृ. २४८ दशवै. (आ. आत्मा.), पृ. ८७९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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