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________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि २७३ भाषाशुद्धि की फलश्रुति ३८८. परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, चउक्कसायावगए अणिस्सिए । स निधुणे धुण्णमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥ ५७॥ –त्ति बेमि ॥ ॥सत्तमं वक्कसुद्धि-अज्झयणं समत्तं ॥ .. [३८८] (जो साधु गुण-दोषों की) परीक्षा करके बोलने वाला है, जिसकी इन्द्रियां सुसमाहित हैं, (जो) चार कषायों से रहित हैं, (जो) अनिश्रित (प्रतिबन्धरहित या तटस्थ) है, वह पूर्वकृत पाप-मल को नष्ट करके इस लोक तथा परलोक का आराधक होता है। ऐसा मैं कहता हूं। विवेचन–परीक्ष्यभाषी की अर्हता और उपलब्धि—जो साधु सुसमाहितेन्द्रिय, कषायों से रहित तथा द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव के प्रतिबन्ध से मुक्त-तटस्थ है, वही वचन के गुण-दोषों की परख करके बोल पाता है। तप-संयम के प्रभाव से पूर्वकृत वही पाप-मल को नष्ट कर डालता है, अपने सुन्दर संयम से सत्पुरुषों में इस लोक में मान्य बनता है तथा परलोक में उत्तम देवलोक या सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है। यह उसकी सर्वोत्तम उपलब्धि है। ॥सप्तम वाक्यशुद्धि-अध्ययन समाप्त ॥ ४५. धुनमलं-पापमलं ।—हारि. वृत्ति, पत्र २२४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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