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कहलाता है उक्त दर्शन से सम्पन्न ।
संयम और तप में रत - १७ प्रकार के संयम और १२ प्रकार के तप में रत । आगमसम्पन्न – जो ग्यारह अंगों के अध्येता एवं वाचक हों, अथवा चतुर्दशपूर्वधर हों, या स्वसमय-परसमय के ज्ञाता विशिष्ट श्रुतधर हों। ज्ञान-दर्शन सम्पन्न से प्राप्त विज्ञान की महत्ता और आगमसम्पन्नता से दूसरों को ज्ञान देने की क्षमता बताई गई है। उद्यान में समवसृत—उद्यान के दो अर्थ मुख्य हैं— (१) पुष्प, फल आदि से युक्त वृक्षों से जो सम्पन्न हो और जहां लोग उत्सव आदि में एकत्रित होते हों, (२) नगर का निकटवर्ती वह स्थान, जहां लोग सहभोज या क्रीड़ा के लिए एकत्र होते हों । ऐसे उद्यान में समवसृत, अर्थात् विराजित अथवा धर्मसभा में प्रवचन आदि के लिए विराजित | गणी — गणनायक, आचार्य । जिज्ञासुगुण : व्याख्या—गणिवर्य के निकट जिज्ञासु बन कर राजा, राजामात्य, माहन (ब्राह्मण) एवं क्षत्रिय पहुंचे थे। राजा का अर्थ प्रसिद्ध है । राजामात्य — मंत्री, सेनानायक और दण्डनायक प्रभृति, (२) मंत्रीगण, (३) राजा के सहायक या कर्मसचिव । क्षत्रिय के तीन अर्थ मिलते हैं— (१) राजन्य या सामन्त, (२) ऐसे क्षत्रिय, जो राजा नहीं हैं, (३) श्रेष्ठी आदि जन। निहु - अप्पाणो - निभृतात्मानः – निश्चलात्मा, एकाग्रता एवं शान्ति से प्रश्न पूछने वाला ही सच्चा जिज्ञासु होता है। *
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कहं भै आयारगोयरो ? – जिज्ञासुओं का प्रश्न है— आपका आचार - गोचर कैसा है ? आचार - गोचर : (क) नाणं पंचविहं-मति - सुयाऽवधि-मणपज्जव केवलणामधेयं .... तत्थ तं दोहिं वा मतिसुतेहिं, तीहिं वा मतिसुयावहीहिं, अहवा मति-सुय-मणपज्जवेहिं, चतुहिं वा मतिसुयावहिमणपज्जवहिं, एक्केण वा केवलनाणेण संपण्णं । ——अगस्त्यचूर्णि, पृ. १३८
(ख) दर्शनं द्विप्रकारं क्षायिकं क्षायोपशमिकं च । अतस्तेन क्षायिकेण क्षायोपशमिकेन वा संपन्नम् ।
दशवैकालिकसूत्र
(ङ) उज्जाणं जत्थ लोगो उज्जाणियाए वच्चति, जं वा ईसिं णगरस्स उवकंठं ठियं तं उज्जाणं ।
(च) उद्यानं पुष्पादिसद्वृक्षसंकुलमुत्सवादौ बहुजनोपभोग्यम् । (छ) बहुजनो यत्र भोजनार्थं याति ।
(क) रायमच्चा – अमच्चा डंडणायगा, सेणावइप्पभितयो ।
(ख) राजामात्याश्च मंत्रिणः ।
(क) आगमो सुतमेव । अतो तं चोद्दसपुव्विं एकारसंगसुयधरं वा ।
- अ. चू., पृ. १३८
— जि . चू., पृ. २०८ हारि. वृत्ति, पत्र १९१
(ख) आगमसंपन्नं नाम वायगं, एक्कारसंगं च, अन्नं वा ससमय-परसमयवियाणगं । (ग) आगमसंपन्नं विशिष्ट श्रुतधरं, बह्वागमत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमेतत् । (घ) नाणदंसणसंपण्णमिति एतेण आतगतं विण्णाणमाहप्पं भण्णति, गणिं आगमसंपण्णं एतेण परग्गाहणसामत्थसंपण्णं । -अगस्त्यचूर्णि, पृ. १३८ नि. उ. ८ — जीवाभि. सू. २५८ वृ. समवायांग ११७ वृ. — जिन. चू., पृ. २०८ हारि. वृत्ति, पृ. १९१ —कौटिल्य. अ. ८/४
(ग) अमात्या नाम राज्ञः सहायाः ।
(घ) खत्तिया राइण्णादयो ।
- हारि. वृत्ति, पृ. १९१
कयं ।
(छ) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३१०-३११
—अ. चू., पृ. १३८ हारि. वृत्ति, पृ. १९१
(ङ) क्षत्रियाः श्रेष्ठयादयः ।
(च) खत्तिया नाम कोइ राया भवइ ण खत्तियो, पन्नो खत्तियो भवइ ण राया । तत्थ जे खत्तिया, ण राया, तेसिं गहणं
—जिनदासचूर्णि, पृ. २०८-२०९