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वंचित हो जाता। इसीलिए मैंने यह रहस्य प्रकट नहीं किया था। आचार्य शय्यम्भव २८ वर्ष की अवस्था में श्रमण बने। अतः दशवैकालिक का रचनाकाल वीर-निर्वाण संवत् ७२ के आस-पास है। उस समय आचार्य प्रभवस्वामी विद्यमान थे, क्योंकि आचार्य प्रभव का स्वर्गवास वीर निर्वाण ७५ में होता है। डॉ. विन्टरनित्ज ने वीरनिर्वाण के ९८ वर्ष पश्चात् दशवैकालिक का रचनाकाल माना है, प्रो. एम.वी. पटवर्द्धन का भी यही अभिमत है। किन्तु जब हम पट्टावलियों का अध्ययन करते हैं तो उनका यह कालनिर्णय सही प्रतीत नहीं होता, क्योंकि आचार्य शय्यम्भव वीरनिर्वाण संवत् ६४ में दीक्षा ग्रहण करते हैं। उनके द्वारा रचित या नि!हण की हुई कृति का रचनाकाल वीरनिर्वाण संवत् ९८ किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि संवत् ६४ में उनकी,दीक्षा हुई और उनके आठ वर्ष पश्चात् उनके पुत्र मनक की दीक्षा हुई। इसलिए वीरनिर्वाण ७२ में दशवैकालिक की रचना होना ऐतिहासिक दृष्टि से उपयुक्त प्रतीत होता है। यहां पर जो उन्हें आचार्य लिखा है, वह द्रव्यनिक्षेप की दृष्टि से है। दशवैकालिक एक नि!हण-रचना है
रचना के दो प्रकार हैं—एक स्वतन्त्र और दूसरा नि¥हण। दशवैकालिक स्वतन्त्र कृति नहीं है अपितु नि!हण-कृति है। दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार आचार्य शय्यम्भव ने विभिन्न पूर्वो से इसका नि!हण किया। चतुर्थ अध्ययन आत्म-प्रवाद पूर्व से, पांचवां अध्ययन कर्म-प्रवाद पूर्व से, सातवां अध्ययन–सत्य-प्रवाद पूर्व से और अवशेष सभी अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से उद्धृत किए गए हैं।२
दूसरा मन्तव्य यह है कि दशवैकालिक का निर्वृहण गणिपिटक द्वादशांगी से किया गया है। यह नि!हण किस अध्ययन का किस अंग से किया गया इसका स्पष्ट निर्देश नहीं है तथापि मूर्धन्य मनीषियों ने अनुमान किया है कि दशवैकालिक के दूसरे अध्ययन में विषय-वासना से बचने का उपदेश दिया गया है, उस संदर्भ में रथनेमि और राजीमती का पावन प्रसंग भी बहुत ही संक्षेप में दिया गया है। उत्तराध्ययन के बाईसवें अध्ययन में यह प्रसंग बहुत ही विस्तार के साथ आया है। दोनों का मूल स्वर एक सदृश है। तृतीय अध्ययन का विषय सूत्रकृताङ्ग १/९ से मिलता है। चतुर्थ अध्ययन का विषय सूत्रकृताङ्ग १/११/७-८ और आचारांग १/१/१, २/१५ से कहीं पर संक्षेप में और कहीं पर विस्तार से लिया गया है। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के उत्तरार्द्ध में भगवान् महावीर द्वारा गौतम
३७. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय भाग, पृष्ठ ३१४ ३८. जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, पृष्ठ ५१ 38. A History of Indian Literature, Vol. II, Page 47, F.N. 1 ४०. The Dasavaikalika Sutra : A Study, Page 9 ४१. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, पृष्ठ ३१४ * दसवैकालिक हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र ११-१२ ४२. आयप्पवायपुव्वा निजूढा होइ धम्मपन्नती ।
कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा ॥ सच्चप्पवायपुव्वा निजूढा होइ वक्कसुद्धी उ ।
अवसेसा निजूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ ॥ ४३. बीओऽवि अ आएसो गणिपिडगाओ दुवालसंगाओ । एअं किर निजूढं मणगस्स अणुग्गहटाए ।
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—दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा १६-१७
—दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा १८