________________
पंचम अध्ययन :पिण्डैषणा
१७५
१७३. तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
बेतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ९१॥ १७४. असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा ।
अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च ओवत्तिया दए ॥ ९२॥ १७५. तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ९३॥ १७६. असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा ।
अगणिम्मि होज निक्खित्तं तं च ओयारिया दए ॥ ९४॥ १७७. तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ९५॥+ [१५४-१५५] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, पुष्पों से और हरित दूर्वादिकों (हरियाली) से उन्मिश्र हो, तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय (अग्राह्य) होता है, इसलिए साधु देने वाली महिला से निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मैं ग्रहण नहीं करता ॥ ७२-७३॥
[१५६-१५७] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य (सचित्त) पानी पर, अथवा उत्तिंग और पनक पर निक्षिप्त (रखा हुआ) हो, तो भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है। अतएव भिक्षु उस देती हुई महिला दाता को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मैं ग्रहण नहीं करता ॥ ७४-७५ ॥
__ [१५८-१५९] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर निक्षिप्त (रखा हुआ) हो तथा उसका (अग्नि का) स्पर्श (संघट्टा) करके दे, तो वह भक्त-पान संयतों के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई (उस महिला) को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ ७६-७७॥
___ [१६०-१६१] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य अग्नि पर रखा हुआ हो और उसमें (चूल्हे में) ईन्धन डाल कर (साधु को) देने लगे तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि देती हुई (उस महिला) से निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है ॥ ७८-७९॥
[१६२-१६३] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर रखा हुआ हो और उसमें से (चूल्हे में से) ईन्धन निकाल कर (साधु-को) देने लगे, तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है। इसलिए भिक्षु देती हुई (उस स्त्री) को निषेध कर दे कि मेरे लिए इस प्रकार का आहार ग्रहण करने योग्य नहीं है । ८०-८१॥
पाठान्तर- + इस निशान से + इस निशान तक की १८ गाथाओं को अन्य प्रचलित प्रतियों में इन दो गाथाओं में संग्रहित
किया गया है"एवं उस्सक्किया ओसक्किया उज्जालिया पजालिया निव्वाविया । उस्सिंचिया निस्सिंचिया ओवत्तिया ओयारिया दए ॥ तं भवे भत्त-पाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दितिअं पडिआइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥"