SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ के पास न जाए ॥ ११॥ विवेचन — ब्रह्मचर्यघातक स्थानों के निकट भिक्षाटन निषेध — मुनि को भिक्षाचरी के लिए ऐसे मोहल्ले में या मोहल्ले के निकट से भी होकर नहीं जाना चाहिए, जहां दुराचारिणी स्त्रियां रहती हों, क्योंकि वहां जाने से ब्रह्मचर्य महाव्रत या साधुत्व के प्रति लोक शंका की दृष्टि से देखेंगे, उसका मन भी वहां के दृश्यों तथा वातावरण को देख कर ब्रह्मचर्य से विचलित हो सकता है। ऐसी चरित्रहीन नारियों के बार-बार संसर्ग के कारण साधु के महाव्रतों की क्षति हो सकती है। कामविकार के बीज किस समय, किस परिस्थिति में अंकुरित हो उठें, यह नहीं कहा जा सकता। अतः ऐसे खतरों से सदा सावधाना रहना चाहिए । १५ बंभचेरवसाणु — ब्रह्मचर्य का वशवर्ती, ब्रह्मचर्य को वश में लाने वाला, अथवा ब्रह्मचर्य अर्थात् गुरु के अधीन रहने वाला साधक । १६ वेससामंते : विश्लेषण (१) जहां विषयार्थी लोग प्रविष्ट होते हैं, वह वेश कहलाता है, (२) अथवा वेश यानी नीच स्त्रियों का समावाय या वेश्याश्रय । अथवा वेश – वेश्यागृह सामन्ते समीप ।१७ विसोत्तिया : विस्त्रोतसिका : व्याख्या— कूड़ा-कर्कट इकट्ठा होने से जैसे जल के आने का स्रोत – प्रवाह रुक जाता है, उसका प्रवाह दूसरी ओर हो जाता है, खेती सूख जाती है, वैसे ही वेश्याओं के संसर्ग से, उनके कटाक्षलावण्यादि देखने से मोह, अज्ञान आदि का कूड़ा दिमाग में जम जाता है । बुद्धि का प्रवाह अब्रह्मचर्य की मुड़ जाता है। इससे ज्ञान दर्शन चारित्र का स्रोत रुक जाता है, संयम की कृषि सूख जाती है।“ यह भावविस्रोतसिका है। रूप, ओर अणाययणे : अनायतन- (१) सावद्य, (२) अशुद्धि-स्थान कुस्थान और (३) कुशीलसंसर्ग ।१९ १५. (क) दशवै. (संतबालजी), पृ. ४४-४५ १६. (क) ब्रह्मचर्यमैथुनविरतिरूपं वशमानयति —— आत्मायत्तं करोति, दर्शनाक्षेपादिना ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् । — हारि. टीका, पत्र १६५ दशवैकालिकसूत्र अ. चू., पृ. १०१ वही, पृ. १०१, ——अ. चू., पृ. १०१ -अ. चू., पृ. १०१ अ. चिंता, ४-६९ हारि. वृत्ति, पत्र १६५ (ङ) 'सामंते समीपे ' वि किमुत तम्मि चेव । अ. चू., पृ. १०१ १८. ....तासिं वेसाणं भावविपेक्खियं णट्टट्टहसियादी पासंतस्स णाणदंसणचरित्ताणं आगमो निरुंभति, तओ संजमसस्सं सुक्खइ, एसा भावविसोत्तिया । —– जिन. चूर्णि, पृ. १७१ (क) सावज्जमणायतणं असोहिठाणं कुसीलसंसग्गा । गट्ठा होंतिपदा ते विवरीय आययणा ॥ (ग) दशवै. (संतबालजी), पृ. ४५ — ओधनियुक्ति ७६४ (ग) संदसणेण पीती, पीतीओ रती, रतीतो वीसंभो । वीसंभातो पणतो पंचविहं वड्डइ पेम्मं ॥ १७. १९. (ख) 'बंभचेरं वसमणुगच्छति — बंभचेरवसाणुए ।' (ग) बंभचारिणो गुरुणो तेसिं वसमणुगच्छतीति, बंभचेरवसाणुए । (क) 'वेससामंते' – पविसंति जत्थ विसयत्थिणो ति वेसा, पविसति वा जणमणेसु वेसो । (ख) 'स पुणणीचइत्थिसमवाओ ।' (ग) वेश्याऽऽ श्रयः पुरं वेशः । (घ) न चरेद् वेश्यासामन्तेन गच्छेद् गणिकागृहसमीपे । अ.चू., पृ. १०१
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy