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मूलसूत्र संज्ञा क्यों ?
दशवैकालिक और उत्तराध्ययन आदि को मूलसूत्र संज्ञा क्यों दी गई है ? इस सम्बन्ध में विज्ञों में विभिन्न मत हैं । पाश्चात्य विज्ञों ने भारतीय साहित्य का जिस गहराई, रुचि और अध्यवसाय से अध्ययन किया है वह वस्तुतः प्रशंसनीय है। कार्य किस सीमा तक हुआ है ? कितना उपादेय है ? यह प्रश्न अलग है, पर उन्होंने कठिन श्रम और उत्साह के साथ जो प्रयत्न किया है, यह भारतीय चिन्तकों के लिए प्रेरणादायी है।
जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्राय अध्येता प्रो. शर्पेन्टियर ने उत्तराध्ययनसूत्र की प्रस्तावना में लिखा है कि मूलसूत्र में भगवान् महावीर के मूल शब्द संगृहीत हैं जो स्वयं भगवान् महावीर के मुख से निसृत हैं । १४
सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान डॉ. वाल्टर शुब्रिंग ने Lax Religion Dyaina ( जर्मन भाषा में लिखित) पुस्तक में लिखा है कि मूलसूत्र नाम इसलिए दिया गया ज्ञात होता है कि श्रमण और श्रमणियों के साधनामय जीवन के मूल में प्रारम्भ में उनके उपयोग के लिए इनका निर्माण हुआ ।
इटली के प्रोफेसर गेरीनो ने एक विचित्र कल्पना की है। उस कल्पना के पीछे उनके मस्तिष्क में ग्रन्थ के 'मूल' और 'टीका' ये दो रूप मुख्य रहे । इसलिए उन्होंने मूल ग्रन्थ के रूप में मूलसूत्र को माना है क्योंकि इन आगम-ग्रन्थों पर निर्युक्ति, चूर्णि, टीका आदि विपुल व्याख्यात्मक साहित्य है । व्याख्या साहित्य में यत्र-तत्र मूल शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसकी वे टीकाएं और व्याख्याएं हैं। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक पर विपुल व्याख्यात्मक साहित्य है, इसलिए इन आगमों को मूलसूत्र कहा गया है। टीकाकारों ने मूल ग्रन्थ के अर्थ में मूलसूत्र का प्रयोग किया है, संभव है उसी से यह आगम मूलसूत्र कहे जाने लगे हों ।
पाश्चात्य मूर्धन्य मनीषियों ने मूलसूत्र की अभिधा के लिए जो कल्पनाएं की हैं, उनके पीछे किसी अपेक्षा का आधार अवश्य है, पर जब हम गहराई से चिन्तन करते हैं तो उनकी कल्पना पूर्ण रूप से सही नहीं लगती। प्रो. शर्पेन्टियर ने भगवान् महावीर के मूल शब्दों के साथ मूलसूत्रों को जोड़ने का जो समाधान किया है, वह उत्तराध्ययन के साथ कदाचित् संगत हो तो भी दशवैकालिक के साथ उसकी संगति बिल्कुल नहीं है। यदि हम भगवान् महावीर साक्षात् वचनों के आधार पर 'मूलसूत्र' मानते हैं तो आचारांग, सूत्रकृतांग प्रभृति अंग ग्रन्थ, जिन का सम्बन्ध सीधा गणधरों से रहा है मूलसूत्र कहे जाने चाहिए। पर ऐसा नहीं है, इसलिए प्रो. शर्पेन्टियर की कल्पना घटित नहीं होती ।
डॉ. वाल्टर शुब्रिंग के मतानुसार मूलसूत्र के लिए श्रमणों के मूल नियम, परम्पराओं एवं विधि-निषेधों की दृष्टि से मूलसूत्र की अभिधा दी गई। पर यह समाधान भी पूर्ण रूप से सही नहीं है । दशवैकालिक में तो यह मिलती है पर अन्य मूलसूत्र में अनेक दृष्टान्तों से जैन धर्म-दर्शन सम्बन्धी अनेक पहलुओं पर विचार किया गया है। इसलिए डॉ. शुब्रिंग का चिन्तन भी एकांगी पहलू पर ही आधृत है।
प्रो. गिनो ने मूल और टीका के आधार पर 'मूलसूत्र' अभिधा की कल्पना की हैं, पर उनकी यह कल्पना बहुत ही स्थूल है। इस कल्पना में चिन्तन की गहराई का अभाव है। मूलसूत्रों के अतिरिक्त अन्य आगमों पर भी अनेक टीकाएं हैं। उन टीकाओं के आधार से ही किसी आगम को मूलसूत्र की संज्ञा दी गई हो तो वे सभी आगम 'मूलसूत्र' कहे जाने चाहिए ।
हमारी दृष्टि से जिन आगमों में मुख्य रूप से श्रमण के आचार सम्बन्धी मूल गुणों महाव्रत, समिति, गुप्ति, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का निरूपण है और जो श्रमण - जीवनचर्या में मूल रूप से सहायक बनते हैं और जिन
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The Uttradhyayana Sutra, Page 32
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