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दशवैकालिकसूत्र होकर शीघ्र-शीघ्र, भिक्षा के लिए चलने का निषेध है। अथवा भिक्षा के लिए तो चल पड़ा, किन्तु मन में याचनादि परीषहों का भय होना उद्विग्नता है, उक्त उद्विग्नता से मुक्त रहने वाला अनुद्विग्न है। इसलिए कहा गया धीमेधीमे चले। त्वरा से ईर्यासमिति का शोधन नहीं होता, उचित उपयोग नहीं रह पाता, प्रतिलेखन में प्रमाद होता है।
भिक्षाकाल— प्राचीनकाल में साधु की दैनिक चर्या विभजित थी। सूर्योदय के पश्चात् प्रतिलेखनादि करके दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान और तत्पश्चात् तृतीय प्रहर में भिक्षाचर्या का विधान था। 'एगभत्तं च भोयणं' (एक बार भोजन करने) के नियम के अनुसार तो यही भिक्षाकाल उपर्युक्त था। किन्तु इसे सभी क्षेत्रों में भिक्षा का उपयुक्त समय नहीं माना जा सकता। इसलिए देश-कालानुसार आचार्यों ने सामान्यतः भिक्षाकाल उसे ही निर्धारित किया, कि जिस क्षेत्र में लोगों के भोजन का जो समय हो, वही उपयुक्त भिक्षाकाल है। इसीलिए यहां भिक्षा का कोई निर्धारित समय न बताकर सामान्यरूप से कहा गया है—'संपत्ते भिक्खकालम्मि'। (भिक्षा का समय हो जाने पर)। इस विधान के लिए गृहस्थों के घरों में रसोई बनने से पहले या खा-पीकर रसोई बन्द कर देने के बाद भिक्षा के लिए जाना भिक्षा का अकाल है। अकाल में भिक्षाटन करने से अलाभ और आज्ञाभंग, दोनों स्थितियां उपस्थित होती हैं।
क्रमयोग : भावार्थ- क्रमयोग का अर्थ है-भिक्षा करने की क्रमिक विधि।
भत्तपाणं : भक्त-पान- भक्त के तीन अर्थ आगमों में मिलते हैं—(१) भोजन, (२) भात और (३) बार। भगवान् महावीर के युग में तथा उसके पश्चात् शास्त्र लिपिबद्ध होने तक बंगाल-बिहार में जैनधर्म फैला, वहां भात (पका हुआ चावल) ही मुख्य खाद्य था, इसलिए शास्त्रों में यत्र-तत्र 'भत्तपाणं' शब्द ही अधिक प्रयुक्त हुआ है। परन्तु बाद में टीकाकारों ने 'भत्त' का अर्थ भोजन किया है। अगस्त्यचूर्णि में कहा है क्षुधापीड़ित जिसका सेवन करें वह भक्त है। पान का अर्थ है—जो पिया जाए। १. (क) असंभंतो नाम सव्वे भिक्खायरा पविट्ठा, तेहिं उंछिए भिक्खं न लभिस्सामित्ति काउं मा तुरेज्जा, तूरमाणो य
पडिलेहणापमादं करेजा, रियं वा न सोधेज्जा, उवयोगस्स ण ठाएजा, एवमादी दोसा भवंति। तम्हा असंभंतेण
पडिलेहणं काऊणं, उवयोगस्स ठायित्ता अतुरिए भिक्खाए गंतव्वं । —जिनदास चूर्णि, पृ. १६६ (ख) अमूर्छितः पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो, विहितानुष्ठानमिति कृत्वा, न तु पिण्डादावेवासक्त इति । (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १९८ (घ) अणुविग्गो अभीतो गोयरगताण परीसहोवसग्गाण ।
-अ. चू., पृ. ९९ (क) पढमं पोरिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायई । तइयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीइ सज्झायं ॥
-उत्त. २६/१२ (ख) उत्सर्गतो हि तृतीयपौरुष्यामेव भिक्षाटनमनुज्ञातम् ।।
-उत्तरा. बृहद्वृत्ति, अ. ३०/२१ ३. (क) "भिक्खाए कालो भिक्खाकालो तंमि भिक्खकाले संपत्ते ।"
—जिनदास चूर्णि, पृ. १६६ (ख) सम्प्राप्तेशोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते, 'भिक्षाकाले'—भिक्षासमये। अनेनासंप्राप्ते भक्तपानैषणा-प्रतिषेधमाह, अलाभाज्ञाखण्डनाभ्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति ।
–हारि. वृत्ति, पत्र १६३ ४. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १४३ ५. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १९७
(ख) 'भत्तपाणं-भजंति खुहिया तमिति भत्तं, पीयत इति पाणं, भत्तपाणमिति समासो। -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९९