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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा १४३ [८३] भिक्षा का काल प्राप्त होने पर ( भिक्षु) असम्भ्रान्त (अनुद्विग्न) और अमूच्छित (आहारादि में अनासक्त) होकर इस (आगे कहे जाने वाले) क्रम-योग (विधि) से भक्त - पान ( भोजन - पानी) की गवेषणा करे ॥ १ ॥ [८४] ग्राम या नगर में गोचराग्र के लिए प्रस्थित (निकला हुआ) मुनि अनुद्विग्न और अव्याक्षिप्त (एकाग्र= स्थिर) चित्त से धीमे-धीमे चले ॥ २॥ [८५] (वह भिक्षु) आगे (सामने) युगप्रमाण पृथ्वी को देखता हुआ तथा बीज, हरियाली (हरी वनस्पति), (द्वीन्द्रियादि) प्राणी, सचित्त जल और सचित्त मिट्टी (च शब्द से अग्निकाय आदि) को टालता (बचता) हुआ चले ॥ ३॥ [८६] अन्य मार्ग के (विद्यमान) होने पर (साधु या साध्वी) गड्ढे आदि, ऊबडखाबड़ (विषम भूमि), भूभाग, ठूंठ ( कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल) और पंकिल (कीचड़ वाले) मार्ग को छोड़ दे, तथा संक्रम (जल या गड्ढे पर काष्ठ आदि रख कर बनाये हुए कच्चे पुल) के ऊपर से न जाए ॥ ४॥ [८७] (साधु या साध्वी ) उन गड्ढे आदि से गिरता हुआ या फिसलता (स्खलित होता) हुआ प्राणियों और भूतों—स या स्थावर जीवों की हिंसा कर सकता है। [८८] इसलिए सुसमाहित (सम्यक् समाधिमान् ) संयमी साधु अन्य मार्ग के होते हुए उस मार्ग से न जाए । यदि दूसरा मार्ग न हो तो ( निरुपायता की स्थिति में) यतनापूर्वक (उस मार्ग से) जाए ॥ ६॥ [हिलते हुए काष्ठ (लक्कड़), शिला, ईंट अथवा संक्रम (कच्चे पुल) पर से भिक्षु न जाए, (उस पर से जाने) में ज्ञानियों ने असंयम देखा है । ] [८९] संयमी (साधु या साध्वी) अंगार (कोयलों) की राशि, राख के ढेर, भूसे (तुष) की राशि और गोबर पर सचित्त रज से युक्त पैरों से उन्हें अतिक्रम ( लांघ) कर न जाए ॥ ७॥ [९०] वर्षा बरस रही हो, कुहरा (धुंध ) पड़ रहा हो, महावात (भंयकर अंधड़ ) चल रहा हो, और मार्ग में तिर्यञ्च संपातिम जीव उड़ (या छा) रहे हों तो भिक्षाचरी के लिए न जाए ॥ ८ ॥ विवेचन — भिक्षाटन सम्बन्धी विधि - निषेध - प्रस्तुत अष्टसूत्री (गा. १ से ८ तक) में भिक्षा के उद्देश्य से प्रस्थान - काल तथा भिक्षार्थगमन में उत्सर्ग-अपबाद विधि एवं निषेध का प्रतिपादन किया गया है। भिक्षाचर्या साधु-साध्वी के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है। इसका उद्देश्य शास्त्रोक्त विधि के अनुसार निर्दोष आहार उच्चनीच - मध्यम कुलों से समभावपूर्वक लाकर जीवन निर्वाह करना है । इसलिए यहां भिक्षु–भिक्षुणी की चित्तवृत्ति के लिए चार शब्द प्रस्तुत किए हैं—असम्भ्रांत, अमूर्छित, अनुद्विग्न, मंदगति से गमन । असम्भ्रांत का तात्पर्य यह है कि भिक्षाकाल में भिक्षा के लिए बहुत-से भिक्षाचर पहुंच चुके होंगे, अतः उनको भिक्षा दे देने के बाद मेरे लिए क्या बचेगा ? यह सोचकर हड़बड़ी में जल्दी-जल्दी भिक्षाचर्या के लिए प्रस्थान करने की वृत्ति न हो । मूर्च्छा का अर्थ — आसक्ति, गृद्धि या लालसा है। उससे प्रेरित होकर स्वादिष्ट या गरिष्ठ भोजन की लालसा से सम्पन्न घरों की ओर भिक्षाचारी के लिए प्रस्थान करने की भिक्षु की मूच्छितवृत्ति न हो । अथवा शब्दादि विषयों के प्रवाह में मूच्छित—आसक्त होकर भिक्षाचरी के उद्देश्य को भुला न दे। अनुद्विग्नता का अर्थ है— मन में व्याकुलता न होना । मुझे भिक्षा मिलेगी या नहीं ? पता नहीं, कैसी भिक्षा मिलेगी ? इस प्रकार की वृत्ति उद्विग्नता है। साधु को उद्विग्न
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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