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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका ९. केवलज्ञान - केवलदर्शन की प्राप्ति । १०. जिनत्व, सर्वज्ञता एवं लोकालोकज्ञता की प्राप्ति । ११. योगों का निरोध और शैलेशी अवस्था की प्राप्ति । १२. सर्वकर्मक्षय करके कर्ममुक्त होकर सिद्धिप्राप्ति । १३. लोकाग्र में स्थित होकर शाश्वत सिद्धत्व प्राप्ति । ११९ दिव्य एवं मानवीय भोगों से विरक्ति पुण्य-पाप बन्ध और मोक्ष का ज्ञान होते ही आत्मा को दिव्य एवं मानवीय विषय भोग निःसार, क्षणिक एवं किम्पाकफल के समान दुःखरूप प्रतीत होने लगते हैं, क्योंकि सम्यग्ज्ञान से वस्तुस्थिति का बोध हो जाता है। इन तुच्छ भोगों के कटु परिणामों एवं चातुर्गतिक संसारपरिभ्रमण का दृश्य साकार - सा प्रतिभासित होने लगता है। इसलिए देव - मनुष्यसम्बन्धी भोगों से ऐसे साधक को सहज ही विरक्ति हो जाती है । १२० यहां ज्ञान का सार चारित्र बतलाया गया है। निव्विंदए : दो रूप : दो अर्थ (१) निर्विन्द — निश्चयपूर्वक जानना, सम्यक् विचार करना । (२) निर्वेद — घृणा करना, विरक्त होना, असारता का अनुभव करना । १२१ १३१ बाह्य- आभ्यन्तर संयोग क्या, उनका परित्याग कैसे ? – संयोग का अर्थ यहां केवल सम्बन्ध नहीं है, किन्तु आसक्ति या मोह से संसक्त सम्बन्ध, अथवा मूर्च्छाभाव या ग्रन्थि है। स्वर्ण आदि का संयोग या माता-पिता आदि का संयोग बाह्य संयोग है और क्रोधादि का संयोग आभ्यन्तर संयोग है। इन्हें ही क्रमशः द्रव्यसंयोग और भावसंयोग कहा जा सकता है। भोगों से जब मनुष्य को अन्तर से वैराग्य हो जाता है तो भोगों के साधनों या भोगभावोत्पत्ति के कारणों से ममता-‍ -मूर्च्छा सहज ही हट जाती है, संयोगों का त्याग सहज ही हो जाता है। क्योंकि तब अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि ये संयोग ही जीव को बन्धन में डाले हुए हैं, और मेरे लिए अनेक दुःखों के करण बने हुए हैं। संयोग भी दो प्रकार के होते हैं— प्रशस्त और अप्रशस्त । इनमें से वह अप्रशस्त संयोगों को छोड़ता है, किन्तु देव, गुरु, धर्मसंघ, साधुवेष, धर्मोपकरण आदि प्रशस्त संयोगों को अमुक मर्यादा तक ग्रहण करता है ।१२२ gus और अनगारित्व स्वीकार : विशेषार्थ — मुण्डन दो प्रकार का होता है— द्रव्यमुण्डन और भावमुण्डन । केशलुञ्चन आदि करना द्रव्यमुण्डन है और पञ्चेन्द्रियनिग्रह एवं कषायविजय भावमुण्डन है। प्रथम मुण्डन शारीरिक है, दूसरा मानसिक है। दोनों प्रकार से जो मुण्डित हो जाता है, वह 'मुण्ड' कहलाता है। स्थानांगसूत्र में १० . ११९. (क) दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण), पृ. १७ (ख) दशवै. (आचार्य आत्मारामजी म.), पृ. १२३ १२०. हारि. वृत्ति, पत्र १५७ १२१. ‘णिच्छियं विंदतीति णिव्विदति, विविहमणेगप्पगारं वा विंदइ निव्विदइ, जहा एते किंपागफलसमाणा दुरंता भोग त्ति । ' — जिनदास चूर्णि, पृ. १६२ १२२. (क) संयोगं ——– सम्बन्धं द्रव्यतो भावतश्च साभ्यन्तरबाह्यं क्रोधादि - हिरण्यादि-सम्बन्धमित्यर्थः । (ख) बाहिरं अब्भंतरं च गंथं । (ग) दशवै. आचार्य श्री आत्मारामजी म., पृ. १२४ — हारि. वृत्ति, पत्र १५९ -- जिनदास चूर्णि, पृ. १६२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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