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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका ११७ विराधना होने की सम्भावना है। इसलिए यहां द्वीन्द्रियादि त्रसजीवों को एक या दो प्रतीक का नाम लेकर उपलक्षण से समस्त विकलेन्द्रियों का ग्रहण करने का संकेत किया गया है।९ विराधना कहां-कहां और कैसे सम्भव?— प्रस्तुत सूत्र के अनुसार पूर्वोक्त हाथ, पैर, भुजा, उरु, उदर, सिर आदि अंगोपांगों तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छन, रजोहरण, गोच्छक, दण्ड, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक तथा इसी प्रकार के अन्य (मुखवस्त्रिका, पुस्तक आदि) उपकरणों पर पूर्वोक्त द्वीन्द्रियादि त्रसजीवों के चढ़ जाने पर विराधना होने की सम्भावना है।१२ उपकरण : परिग्रह एवं विशेषार्थ- प्रश्न हो सकता है कि साधु-साध्वी जब पंचम महाव्रत में परिग्रह का सर्वथा त्याग कर चुके होते हैं, तब उपकरणों का रखना कैसे विहित या संगत हो सकता हैं ? इसका समाधान यह है, कि शास्त्रों में उपकरणों का सर्वथा त्याग कहीं नहीं बताया। हां, उनकी मर्यादा अवश्य बताई है। जो भी उपकरणादि धर्मपालन या संयमपालन आदि के उद्देश्य से रखे जाते हैं, उन पर तनिक भी ममता-मूर्छा न रखी जाए तो वे परिग्रह की कोटि में नहीं आते, यह इसी शास्त्र में आगे बताया गया है। वस्तुतः उपकरण उसी को कहते हैं जिसके द्वारा ज्ञान-दर्शन-चारित्र की पूर्णतया आराधना की जा सके, जीवों की रक्षा एवं संयम-परिपालना की जा सके।९३ पूर्वोक्त त्रसजीवों की यतना के उपाय— पूर्वोक्त त्रसजीव यदि शरीर के किसी अंग या किसी उपकरण पर चढ़ जाएं तो उनकी रक्षा साधु-साध्वी कैसे करें ? यह ५४वें सूत्र के उपसंहार में बताया गया है। इन शब्दों के विशेष अर्थ इस प्रकार हैं संजयामेव : दो अर्थ (१) यतनापूर्वक, जिससे कि किसी कीट, पतंग आदि को पीड़ा न हो, (२) संयमपूर्वक, सावधानीपूर्वक उस जीव को लेकर जिससे कि उसे चोट न पहुंचे। पडिलेहिय–प्रतिलेखन करके, भलीभांति देखभाल कर । पमजिय-प्रमार्जन कर या पोंछ कर। एगंतमवणिजा (वहां से हटा कर) एकान्त में, अर्थात् —ऐसे स्थान में जहां उसका उपघात न हो वहां, रख दे या पहुंचा दे। नो णं संघायमावज्जिज्जा उनको (किसी प्रकार का) संघात न पहुंचाए, यह इस पंक्ति का शब्दशः अर्थ है। भावार्थ यह है कि उपकरण आदि पर चढ़े हुए जीवों को परस्पर इस प्रकार से गात्र स्पर्श कर देना—भिड़ा देना कि उन्हें पीड़ा हो, वह संघात कहलाता है। संघात शब्द के आगे 'आदि' शब्द लुप्त होने से उस के अन्तर्गत परितापना, क्लामना, भयभीत करना, हैरान करना, उन्हें इकट्ठा करना, टकराना आदि सभी प्रकार की पीड़ाओं (घात) का ग्रहण हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि शरीरावयवों या धर्मोपकरणों पर स्थित सजीवों की रक्षा के लिए उन्हें निरुपद्रव स्थान में यतनापूर्वक रख ९१. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ टिप्पण), पृ. १४ ९२. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १०८ ९३. (क) वही, पृ. १०८-१०९-११० (ख) अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधु क्रियोपयोगिनि उपकरणजाते ।। —हारि. वृत्ति, पत्र १५६ (ग) जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुच्छणं, तं पि संजमलज्जट्टा धारंति परिहरंति य । न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा, मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इह वुत्तं महेसिणा । —दशवै. अ. ६, गाथा १९-२०
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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