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निश्चितता का अनुभव करती रही, जिनकी छत्रछाया में मेरे जीवन की सुखद घड़ियां बीतीं, उन प्रतिभामूर्ति मातेश्वरी महासती प्रभावती जी का २७ जनवरी, १९८२ को संथारे के साथ स्वर्गवास हो गया। उनके स्वर्गवास से मन को भारी आघात लगा, मेरा भी स्वास्थ्य शिथिल ही रहा, इसलिए न चाहते हुए भी विलम्ब होता ही चला गया।
इसका संपादन मैंने उदयपुर वर्षावास में सन् १९८० में प्रारम्भ किया। डूंगला वर्षावास में प्रवचन आदि अन्य आवश्यक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण कार्य में प्रगति न हो सकी, जोधपुर और मदनगंज के वर्षावास में उसे सम्पन्न किया।
आगम का सम्पादनकार्य अन्य सम्पादन कार्यों से अधिक कठिन है, क्योंकि आगम की भाषा और भावधारा वर्तमान युग के भाव और भाषा-धारा से बहुत ही पृथक् है। जिस युग में इन आगमों का संकलन-आकलन हुआ उस युग की शब्दावली में जो अर्थ सन्निहित था, आज उन शब्दों का वही अर्थ हो, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। शब्दों के मूल अर्थ में भी कालक्रमानुसार परिवर्तन हुए हैं। इसलिए मूल आगम में प्रयुक्त शब्दों का सही अर्थ क्या है ? इसका निर्णय करना कठिन होता है, अतः इस कार्य में समय लगना स्वाभाविक था। तथापि परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य राजस्थानकेसरी अध्यात्मयोगी उपाध्यायप्रवर श्री पुष्करमुनिजी महाराज तथा भाई महाराज श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री के मार्गदर्शन से यह दुरूह कार्य सहज सुगम हो गया। यदि पूज्य गुरुदेवश्री का हार्दिक आशीर्वाद
और देवेन्द्रमुनिजी का मार्गदर्शन प्राप्त नहीं होता तो सम्पादन कार्य में निखार नहीं आता। उनका चिन्तन और प्रोत्साहन मेरे लिए संबल के रूप में रहा है। मैं इस अवसर पर त्याग-वैराग्य की जीती-जागती प्रतिमा स्वर्गीया बालब्रह्मचारिणी परमविदुषी चन्दनबाला श्रमणीसंघ की पूज्य प्रवर्तिनी महासती श्री सोहनकुंवरजी म. को विस्मृत नहीं कर सकती, जिनकी अपार कृपादृष्टि से ही मैं संयम-साधना के महामार्ग पर बढ़ी और उनके चरणारविन्दों में रहकर आगम, दर्शन, न्याय, व्याकरण का अध्ययन कर सकी। आज मैं जो कुछ भी हूं, वह उन्हीं का पुण्य-प्रताप
है।
प्रस्तुत आगम के सम्पादन, विवेचन एवं लेखन में पूजनीया माताजी महाराज का मार्गदर्शन मुझे मिला है। प्रेस योग्य पाण्डुलिपि को तैयार करने में पण्डितप्रवर मुनि श्री नेमिचन्द्रजी ने जो सहयोग दिया है वह भी चिरस्मरणीय. रहेगा। श्री रमेशमुनि, श्री राजेन्द्रमुनि, श्री दिनेशमुनि प्रभृति मुनि-मण्डल की सत्प्रेरणा इस कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने के लिए मिलती रही तथा सेवामूर्ति महासती चतरकुंवरजी की सतत सेवा भी भुलाई नहीं जा सकती, सुशिष्या महासती चन्द्रावती, महासती प्रियदर्शना, महासती किरणप्रभा, महासती रत्नज्योति, महासती सुप्रभा आदि की सेवाशुश्रूषा इस कार्य को सम्पन्न करने में सहायक रही है। ज्ञात और अज्ञात रूप में जिन महानुभावों का और ग्रन्थों का मुझे सहयोग मिला है, उन सभी के प्रति मैं विनम्र भाव से आभार व्यक्त करती हूं।
—जैन साध्वी पुष्पवती महावीर भवन, मदनगंज-किशनगढ़ दिनांक ४-५-८४
[प्रथम संस्करण से]
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