SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस चूलिका में प्रतिपादित है। इस चूलिका के वाक्यों से साधक में संयम के प्रति रति उत्पन्न होती है, इसीलिए इस चूलिका का नाम रतिवाक्या है। इसमें जो उपदेश प्रदान किया गया है, वह बहुत ही प्रभावशाली और अनूठा है। दूसरी चूलिका विविक्तचर्या है। इस चूलिका में सोलह गाथाएं हैं। इसमें श्रमण की चर्या के गुण और नियमों का निरूपण है, इसलिए इसका नाम विविक्तचर्या रखा गया है। संसारी जीव अनुस्रोतगामी होते हैं। वे इन्द्रिय और मन के विषय-सेवन में रत रहते हैं, पर साधक प्रतिस्रोतगामी होता है। वह इन्द्रियों की लोलुपता के प्रवाह में प्रवाहित नहीं होता। वह जो भी साधना के नियम-उपनियम हैं, उनका सम्यक् प्रकार से पालन करता है। पांच महाव्रत मूलगुण हैं। नवकारसी, पौरसी आदि प्रत्याख्यान उत्तरगुण हैं। स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि नियम हैं, जो इनका जागरूकता के साथ पालन करता है वह प्रतिबुद्ध-जीवी कहलाता है। वर्तमान समय में चर्या का नियमन करने वाले आगम हैं। इसलिए स्पष्ट शब्दों में कहा गया है—भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग पर चले 'सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू'। सूत्र का गम्भीर अर्थ विधि और निषेध, उत्सर्ग और अपवाद आदि को अनेकान्त दृष्टि से जानकर आचरण करे। चूलिका के अन्त में यह महत्त्वपूर्ण संदेश दिया गया है कि सभी इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए। कितने ही विचारकों का यह अभिमत है कि आत्मा को गवांकर भी शरीर की रक्षा करनी चाहिए, शरीर आत्मसाधना का साधन है। किन्तु यहां इस विचारधारा का खण्डन किया गया है और आत्मरक्षा को ही सर्वोपरि माना गया है। आत्मा की रक्षा का अर्थ है संयम की रक्षा और संयमरक्षा के लिए बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होना आवश्यक है। ___ इस प्रकार दशवैकालिकसूत्र में श्रमणाचार का बहुत ही व्यवस्थित निरूपण है। जैन श्रमण बाह्य रूप से समस्त पापकारी वृत्तियों से बचे और आन्तरिक रूप से समस्त राग-द्वेषात्मक वृत्तियों से ऊपर उठे। संक्षेप में कहा जाय तो पांचों इन्द्रियों और मन को संयम में रखे और निरन्तर संयम-साधना के पथ पर आगे बढ़े। दशवैकालिक आगम अतीव महत्त्वपूर्ण है। श्रमण को सर्वप्रथम अपने आचार का ज्ञान आवश्यक है। दशवैकालिक की रचना से पूर्व आचारांग का अध्ययन-अध्यापन होता था पर दशवैकालिक की रचना के बाद आचारबोध के लिए सर्वप्रथम दशवैकालिक का अध्ययन आवश्यक माना गया। दशवैकालिक के निर्माण के पूर्व आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन से श्रमणों को महाव्रतों की विभागतः उपस्थापना की जाती थी किन्तु दशवैकालिक के निर्माण के बाद दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन से महाव्रतों की उपस्थापना की जाने लगी। अतीतकाल में श्रमणों को भिक्षाग्राही बनने के बाद आचारांगसूत्र के दूसरे अध्ययन के लोकविजय के पांचवें उद्देशक को जानना आवश्यक था। पर जब दशवैकालिक का निर्माण हो गया तो उसके पांचवें अध्ययन पिण्डैषणा को जानने वाला श्रमण भी भिक्षाग्रही हो गया। इससे यह स्पष्ट है कि दशवैकालिक का कितना अधिक महत्त्व है। इस पर अनेक व्याख्याएं हुई हैं, विवेचन लिखे गए हैं। स्वर्गीय युवाचार्य पं. प्रवर श्री मधुकर मुनिजी महाराज की प्रबल प्रेरणा से आगम-बत्तीसी का मंगलमय कार्य प्रारम्भ हुआ। मेरे लघु भ्राता श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री का स्नेह भरा आग्रह था कि मुझे दशवैकालिकसूत्र का सम्पादन करना है, उस पर विवेचन आदि भी लिखना है। छोटे भाई के प्रेम भरे आग्रह को मैं कैसे टाल सकती थी? मैंने इस महान् कार्य को करने का संकल्प किया, पर शुभ कार्य में विघ्न आते ही हैं। मुझे भी इस कार्य को सम्पन्न करने में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। मेरे संयमी जीवन की आधारस्तम्भ, जिनके कारण मैं सदा [१६]
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy