SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका दूसरे प्राणी के लिए संतापदायक या दुःखोत्पादक हो वह सब दण्ड है। दण्ड का सम्बन्ध यहां केवल हिंसा से ही नहीं है, अपितु असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह से भी है। कौटिल्य ने दण्ड के तीन अर्थ किए हैं—वध, परिक्लेश और अर्थहरण । वध में ताड़न, तर्जन, प्राणहरण, बन्धन आदि हिंसाजनक व्यापार आ जाते हैं। अर्थहरण में धन या किसी पदार्थ का हरण.चोरी एवं परिग्रह आ जाते हैं। तथा परिक्लेश में हिंसा आदि पांचों ही प्रकार से दूसरे को दुःख पहुंचाया जाता है। यद्यपि ये सभी दण्ड्य प्रवत्तियां दूसरों के लिए परितापजनक होने से हिंसा के दायरे में आ जाती हैं और असत्य, चोरी आदि भी दूसरों के लिए दुःखोत्पादक होने से एक प्रकार से हिंसा के ही अन्तर्गत हैं। यहां समारम्भ का अर्थ है—करना या प्रवृत्त होना। _ 'इति' शब्द : पांच अर्थों में— प्रस्तुत सूत्र (४१) में प्रारम्भ में 'इच्चेसिं' शब्द के अन्तर्गत 'इति' शब्द पांच अर्थों में व्यवहृत होता है—(१) हेतु-(यथा-वर्षा हो रही है, इस कारण दौड़ रहा है), (२) ऐसा या इस प्रकार (यथा—उसे अविनीत, ऐसा कहते हैं, अथवा इस प्रकार महावीर ने कहा), (३) सम्बोधन (यथा—धम्मएति =हे धार्मिक !), (४) परिसमाप्ति—(इति भगवइसुत्तं सम्मत्तं) और (५) उपप्रदर्शन (पूर्व वृत्तान्त या पुरावृत्त को बताने के लिए, यथा—इच्चेए पंचविहे ववहारे—ये पूर्वोक्त पांच प्रकार के व्यवहार हैं।) प्रस्तुत सूत्र में 'इति' शब्द 'हेतु' अथवा 'उपप्रदर्शन' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैसे कि इससे पूर्व कहा गया था कि समस्त प्राणी सुखाभिकांक्षी हैं, इसलिए अथवा इस प्रकार पूर्वोक्त षड्जीवनिकायों के प्रति । प्रतिज्ञासूत्रों की व्याख्या- (१) जावज्जीवाए—जीवनपर्यन्त, दण्डप्रत्याख्यान अथवा महाव्रतों की प्रतिज्ञा यावज्जीवन—जीवनभर के लिए होती है। (२) तिविहं तिविहेणं आगम की भाषा में इन्हें तीन करण और तीन योग कहा जाता है। तिविहं को तीन करण—कृत, कारित और अनुमोदित तथा तिविहेणं को तीन योग—मन, वचन और काया का व्यापार (प्रवृत्ति या कर्म) कहा जाता है। जब कोई भी दण्ड या हिंसा आदि पाप स्वयं किया जाता है, तो उसे 'कृत' कहते हैं, दूसरों से कराया जाता है तो उसे कारित कहते हैं और करने वाले को अच्छा कहना या उसका समर्थन करना अनुमोदन कहलाता है। कृत, कारित और अनुमोदन ये तीनों दण्ड-समारम्भ क्रियाएं हैं, इसलिए जितना भी किया, कराया या अनुमोदन किया जाता है, वह मन, वचन और काया के माध्यम से किया जाता है। मन, वचन और शरीर, ये तीनों एक दृष्टि से साधन = करण भी कहे जा सकते हैं। प्रस्तुत में निष्कर्ष यह है कि दण्डसमारम्भ के मन, वचन और काया से कृत, कारित और अनुमोदन के भेद से ९ विकल्प (भंग) हो जाते हैं ४१. (क) 'दंडो सरीरादिनिग्गहो ।' -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ७८ (ख) 'दंडो संघट्टण-परितावणादि ।' -जिन. चूर्णि, पृ. १४२ (ग) 'वधः परिक्लेशोऽर्थहरणं दण्ड इति ।' —कौटिलीय अर्थशास्त्र, २/१०/२८ ४२. (क) इतिसद्दो अणेगेसु अत्थेसु वट्टइ, तं.-'आमंतेण परिसमत्तीए उवप्पदरिसणे य ।' –जिन. चूर्णि, पृ. १४२ (ख) '...हेतौ, ....एवमत्थो इति, ....आद्यर्थे...परिसमाप्तौ, ....प्रकारे....।' -अ. चू., पृ. ७८ (ग) इच्चेसिं इत्यादि सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन हेतुना । –हारि. वृत्ति, पत्र १४३ (घ) इह इतिसद्दो उवप्पदरिसणे दट्ठव्वो...(यथा—) जे एते 'जीवाभिगमस्स छभेया भणिया ।' -जिन. चूर्णि, पृ. १४२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy