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________________ ९० दशवैकालिकसूत्र अस्थिर होता है, इसी तरह मिथ्यात्वरूपी कूड़े कर्कट को साफ किये बिना साधक की जीवन-भूमि पर महाव्रतरूपी प्रासाद की स्थापना कर देने से वह स्थिर और सुन्दर नहीं होता। (३) जिस प्रकार रुग्ण व्यक्ति को औषध देने से पूर्व उसे वमन-विरेचन करा देने से औषध लागू पड़ जाती है, उसी प्रकार जीवों के प्रति अश्रद्धा का वमन-विरेचन करा देने से उनमें प्रगाढ़ व शुद्ध विश्वास होने पर महाव्रतारोहण किया जाता है तो उसके महाव्रत स्थिर एवं शुद्ध रहते हैं।* दण्डसमारम्भ के त्याग का उपदेश और शिष्य द्वारा स्वीकार [४१] इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभेजा, नेवऽन्नेहिं दंडं समारंभावेजा, दंडं समारंभंते वि अन्ने न समणुजाणेजा । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमि, न कारवेमि, + करेंतं पि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ १०॥x अर्थ-[४१] (समस्त प्राणी सुख के अभिलाषी हैं) "इसलिए इन छह जीवनिकायों के प्रति स्वयं दण्ड-समारम्भ न करे, दूसरों से दण्ड-समारम्भ न करावे और दण्डसमारम्भ करने वाले अन्य का अनुमोदन भी न करे।" (शिष्य द्वारा स्वीकार-) (भंते ! मैं) यावज्जीवन के लिए तीन करण एवं तीन योग से (मन-वचन-काया से दण्डसमारम्भ) न (स्वयं) करूंगा, न (दूसरों से) कराऊंगा और (दण्डसमारम्भ) करने वाले दूसरे प्राणी का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। ___ भंते ! मैं उस (अतीत में किये हुए) दण्डसमारम्भ से प्रतिक्रमण करता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और व्युत्सर्ग करता हूं ॥१०॥ विवेचन— प्रस्तुत ४१ वें सूत्र के पूर्वार्द्ध में दण्डसमारम्भ के त्रिविध-त्रिविध त्याग का गुरु द्वारा शिष्य को उपदेश किया गया है तथा उत्तरार्द्ध में शिष्य द्वारा उस त्याग को विधिपूर्वक स्वीकार करने का प्रतिपादन है। दण्डसमारम्भ : विशिष्ट अर्थ— दण्ड और समारम्भ दोनों जैन शास्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं। राजनीतिशास्त्र में दण्ड' शब्द अपराधी को सजा देने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, वह सजा शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक कई प्रकार की हो सकती है। धर्मशास्त्र में संघीय व्यवस्था या व्रत-नियमों का भंग या अतिक्रमण करने वाले साधक को भी तप, दीक्षाछेद अथवा सांघिक बहिष्कार के रूप में दण्ड दिया जाता है। परन्तु यहां 'दण्ड' शब्द इनसे भिन्न अर्थों में प्रयुक्त है। अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार 'दण्ड' का अर्थ किसी भी प्राणी के शरीरादि का निग्रह (दमन) करना है। हरिभद्रसूरि और जिनदास महत्तर के अनुसार दण्ड का अर्थ-संघट्टन, परितापन आदि है। वस्तुतः मूलपाठ से ध्वनित होने वाला अर्थ बहुत ही व्यापक है—मन-वचन-काया की कोई भी प्रवृत्ति, जो * * + (क) जिनदास चूर्णि, पृ. १४३-१४४ (ख) हारि. वृत्ति, पत्र १४५ पाठान्तर—करतं पि । 'इच्चेसिं' से लेकर 'न समणुजाणेज्जा' तक का पाठ विधायक भगवद्वचन' या 'गुरुवचन' है। उससे आगे का 'अप्पाणं वोसिरामि' तक के पाठ में शिष्य द्वारा दण्डसमारम्भत्याग का स्वीकार है। x .
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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