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________________ बहुमूल्य वस्त्रों के सन्दूक भरे पड़े हैं और दूसरे को लज्जानिवारणार्थ कोपीन भी नसीब नहीं है। इस प्रकार सामाजिक विषमता से समाज ग्रस्त है, जिससे आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती और न भौतिक उन्नति ही सम्भव है। यह विषमता अतीत में भी थी। इस विषम स्थिति को सम करने के लिए भगवान् महावीर ने अपरिग्रह का मूलमंत्र प्रदान किया। गृहस्थों के लिए जहां परिग्रह की मर्यादा का विधान है, वहीं श्रमणों के लिए पूर्ण अपरिग्रही जीवन जीने का सन्देश दिया गया है। परिग्रह का मूल मोह, मूर्छा और आसक्ति है। प्रस्तुत आगम में परिग्रह की बहुत ही सुन्दर परिभाषा की गई है—मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। कोई भी वस्तु, चाहे बड़ी हो छोटी हो, जड़ हो या चेतन हो, अपनी हो या पराई हो, उसमें आसक्ति रखना परिग्रह है। परिग्रह सबसे बड़ा विष है। श्रमण उस विष से मुक्त होता है। इसलिए प्रस्तुत अध्ययन में 'सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं' पाठ प्रयुक्त हुआ है। महाब्रतों के साथ ही रात्रिभोजन का भी श्रमण पूर्ण रूप से त्यागी होता है। महाव्रतों का सम्यक् पालन वही कर सकता है जिसे पहले ज्ञान हो। ज्ञान के अभाव में दया की आराधना नहीं हो सकती और बिना दया के अन्य व्रतों का पालन नहीं हो सकता। इस दृष्टि से यह अध्ययन अत्यन्त प्रेरणादायी सामग्री से भरा हुआ है। ___पांचवें अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है। यह अध्ययन दो उद्देशकों में विभक्त है। प्रथम उद्देशक में सौ गाथाएं हैं तो द्वितीय उद्देशक में पचास गाथएं हैं। इस अध्ययन में भिक्षा सम्बन्धी गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा का वर्णन है। इसलिए इस अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है। भिक्षा श्रमण की कठोर चर्या है, उस चर्या में निखार आता है-दोषों को टालने से। भिक्षु निर्दोष भिक्षा ग्रहण करे। प्रस्तुत अध्ययन में किस प्रकार भिक्षा के लिए प्रस्थान करे? चलते समय उसे किन-किन बातों की सावधानी रखनी चाहिए? वर्षा बरस रही हो, कोहरा गिर रहा हो, महावात चल रहा हो और मार्ग में तिर्यक् सम्पातिम जीव छा रहे हों तो भिक्षु भिक्षा के लिए न जाए। ऐसे स्थानों पर न जाए जहां जाने से संयम-साधना की विराधना सम्भव हो। मल-मूत्र की बाधा हो तो उसे रोककर भिक्षा के लिए न जाय क्योंकि उससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किस प्रकार भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ? आदि विषयों पर बहुत ही विस्तार से विवेचन किया है। भिक्षा के लिए चलते हुए जो भी घर आ जाए, बिना किसी भेदभाव के वहां से भिक्षा ले। स्वादु भोजन की तलाश न करे किन्तु स्वास्थ्य की उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। उसकी भिक्षा सामान्य भिक्षा न होकर विशिष्ट भिक्षा होती है। छठे अध्ययन का नाम महाचार कथा है। इसमें ६८ गाथाएं हैं। तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक-आचारकथा है तो इस अध्ययन में महाचार की कथा है। क्षुल्लक-आचारकथा में अनाचारों का संकलन है, सामान्य निरूपण है, उसमें केवल उत्सर्ग मार्ग का ही निरूपण है, जबकि इस अध्ययन में उत्सर्ग और अपवाद दोनों मार्गों का निरूपण है। दोनों ही मार्ग साधक की साधना को लक्ष्य में रखकर बनाए गए हैं। एक नगर तक पहुंचने के दो मार्ग हैं, वे दोनों ही मार्ग कहलाते हैं, अमार्ग नहीं। वैसे ही उत्सर्ग भी साधना का मार्ग है और अपवाद भी। उदाहरण के रूप में बाल, वृद्ध, रोगी श्रमणों के लिए अठारह स्थान वर्ण्य माने हैं। उन अठारह स्थानों में सोलहवां स्थान 'गृहान्तरनिषद्यावर्जन' है, जिसका अर्थ है-गृहस्थ के घर में नहीं बैठना। इसका अपवाद भी इसी अध्ययन की ५९ वीं गाथा में है कि जराग्रस्त, रोगी और तपस्वी निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर बैठ सकता है। क्षुल्लक-आचारकथा का प्रस्तुत अध्ययन में सहेतु निरूपण हुआ है। सातवें अध्ययन का नाम वाक्यशुद्धि है। इस अध्ययन में ५७ गाथाएं हैं, जिसमें भाषा-विवेक पर बल दिया [१३]
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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