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तत्पश्चात् १८वें से २३वें सूत्र तक पूर्वोक्त जीवों की यतना (अहिंसामहाव्रत से सम्बन्धित) का वर्णन है। फिर २४वीं से ३२वीं गाथा तक में यतना से पापकर्म के अबन्ध और अयतना से बन्ध का वर्णन
है।
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उसके बाद ३३वीं गाथा से ३८वीं गाथा तक जीव-अजीव आदि से लेकर मोक्ष तत्त्व तक के सम्यग्ज्ञान-विज्ञान का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध और महत्त्व बताया गया है। फिर ३९वीं गाथा से ४८वीं गाथा तक भोगों से निर्वेद से लेकर सिद्ध (मुक्त) होने तक की धर्मसाधना का निरूपण है। अन्तिम गाथाओं में धर्माराधना के फल का दिग्दर्शन कराया गया है। नवदीक्षित साधु या साध्वी के लिए जीव से मोक्ष तत्त्व तक हेय-ज्ञेय-उपादेय तत्त्वों की सम्यक् ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र की दृष्टि से सम्यक् आराधना का निष्कर्ष इस अध्ययन में दे दिया गया है। साथ ही मोक्षमार्ग के अधिकारी साधक को इस मार्ग की आराधना करने की सांगोपांग विधि इसमें बता दी गई है। सिद्धि के आरोहक्रम को जानने की दृष्टि से यह अध्ययन अतीव उपयोगी है।
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जीवाजीवाहिगमो चरित्तधम्मो तहेव जयणा य । उवएसो धम्मफलं छज्जीवणियाइ अहिगारा ॥
—दश. नि. ४-२१६