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________________ तृतीय अध्ययन ः क्षुल्लिकाचार-कथा 'ताइणं' : तीन रूप- (१) नायिणाम् जो शत्रु से अपनी और दूसरों की रक्षा करते हैं, (२) आत्मा को दुर्गति से बचाने के लिए रक्षणशील, (३) सदुपदेश से दूसरों की आत्मा की रक्षा करने वाले, उन्हें दुर्गति से बचाने वाले। (४) जीवों को आत्मवत् मानते हुए जो उनकी हिंसा से विरत हैं, वे (५) त्रातृणाम् त्राता-सुसाधु। (६) तायिनाम्-सुदृष्ट मार्गों की देशना देकर शिष्यों की रक्षा करने वाले, (७) तय गतौ धातु से, तायी मोक्ष के प्रति गमनशील। निग्गंथाणं : व्याख्या- (१) जैनमुनियों के लिए आगमिक और प्राचीनतम शब्द : निर्ग्रन्थ है, (२) ग्रन्थ –बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से सर्वथा मुक्त। (३) जो अष्टविध कर्म, मिथ्यात्व, अविरति एवं दुष्ट मन-वचनकाययोग हैं, उन पर विजय पाने के लिए निश्छल रूप से सम्यक् प्रयत्न करता है, वह निर्ग्रन्थ है। (४) जो एकाकी (राग-द्वेषरहित होने से), बुद्ध, संछिन्नस्रोत, सुसंयत, सुसमित, सुसमाहित, सुसामायिक, आत्मप्रवादज्ञाता, विद्वान् बाह्य आभ्यन्तर दोनों ओर से छिन्नस्रोत, धर्मार्थी, धर्मवेत्ता, नियागप्रतिपन्न (मोक्ष के प्रति प्रस्थित) साम्याचारी, दान्त, बन्धनमुक्त होने योग्य और ममत्वरहित (निर्मम) है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। महेसिणं : दो रूप : दो अर्थ— (१) महर्षि महान् ऋषि, (२) महैषी—महान् मोक्ष की एषणा करने वाला। निर्ग्रन्थ-महर्षियों के लिए ये अनाचरणीय क्यों ?– ये कार्य निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए अयोग्य या अनाचरणीय क्यों हैं ? इसका उत्तर प्रस्तुत गाथा में निर्ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त महर्षि, संयम में सुस्थित, विप्रमुक्त और त्रायी विशेषणों में है। निर्ग्रन्थ महान् (मोक्ष) की खोज में रत रहते हैं, वे महाव्रती और सर्व संयम में सुस्थित एवं विप्रमुक्त होते हैं, वह त्रायी अहिंसक होते हैं। ज्ञानाचारादि पंचाचारों में ही अहोरात्र लीन रहते हैं, तधा (स्त्री साधिका पुरुषकथा से) स्त्रीकथा, देशकथा, भक्तकथा, राज्यकथा तथा मोहकथा, विप्रलापकथा और मृदुकारुणिकथा ४. (क) शत्रोः परमत्मानं च त्रायंत इति त्रातारः । —जि. चूर्णि, पृ. १११ (ख) आत्मानं त्रातुं शीलमस्येति त्रायी जन्तूनां सदुपदेशदानतस्त्राणकरणशीलो वा त्रायी । -सूत्र. १४, ६, वृत्ति, पत्र २४७ (ग) तायते, त्रायते वा रक्षति दुर्गतरात्मानम्, एकेन्द्रियादिप्राणिनो वाऽवश्यमिति तायी त्रायी वेति । -उत्तरा. ८/४, टीका पृ. २०१ (घ) 'पाणे य नाईवाएजा से समिएत्ति वुच्चई ताई ।' -उत्तरा. ८/९ (ङ) त्रातृभिः साधुभिः । –हा.टी.प. २०१ तायः सूदृष्टमार्गोक्तिः सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः । –हा.टी.प. २६२ (च) तायी-मोक्षं प्रति गमनशीलः । -सूत्र. २/६/२४ टीका, पृ. ३९६ (क) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. ४९ (ख) ग्रन्थः कर्माष्टविधं मिथ्यात्वाविरतिदृष्टयोगाश्च। तज्जयहेतोरशठं संयतते यः स निर्ग्रन्थः । -प्रशमरति श्लो. १४२ (ग) एत्थ वि णिग्गंथे...णिग्गंथेति वुच्चे । -सू. १/६६/६ (क) महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयः यतयः । -हा.टी. पृ. ११६ (ख) महानिति मोक्षस्तं एसंति महेसिणो । -अ. चू., पृ. ५९ ५.
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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