SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तइयं अज्झयणं : तृतीय अध्ययन खुड्डियायारकहा : क्षुल्लिकाचार-कथा निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए अनाचीर्ण १७. संजमे सुद्विअप्पाणं विप्पमुक्काण ताइणं । तेसिमेयमणाइण्णं . निग्गंथाण महेसिणं ॥१॥ ___ [६] जिनकी आत्मा संयम में सुस्थित (सुस्थिर) है, जो (बाह्य-आभ्यन्तर-परिग्रह से) विमुक्त हैं, (तथा) जो (स्व-पर-आत्मा के) त्राता हैं, उन निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिएं ये (निम्नलिखित) अनाचीर्ण (–अनाचरणीय, अकल्प्य, अग्राह्य या असेव्य) हैं ॥ ११ ॥ विवेचन- ये अनाचीर्ण किनके लिए ? –प्रस्तुत प्रथम गाथा में उन महर्षियों के लिए ये अनाचरणीय (अनाचार) बताए गए हैं, जो संयम में सुस्थित हैं, परिग्रहमुक्त हैं, स्वपरत्राता हैं और निर्ग्रन्थ हैं। __ये विशेषण परस्पर हेतु-हेतुमद्भावक्रिया से युक्त- आशय यह है कि यदि निर्ग्रन्थ साधुवर्ग (साधुसाध्वी) की आत्माएं संयम में सुस्थिर होंगी तो वे सर्व (सांसारिक) संयोगों, संगों या साधनों से मुक्त हो सकेंगी। जो साधु-साध्वी सांसारिक (बाह्य-आभ्यन्तर-परिग्रह-) बन्धनों से मुक्त होंगे, वे ही स्व-पर के रक्षक हो सकेंगे और जो स्वंपर के रक्षक होंगे, वे ही महर्षिपद के योग्य हो सकेंगे। संजमे सुट्ठि-अप्पाणं : भावार्थ- जिनकी आत्मा संयम (१७ प्रकार के संयम अथवा पंचास्रवविरमण, पंचेन्द्रिय निग्रह, चार कषाय-विजय एवं दण्डवयत्यागरूप संयम) में भलीभांति स्थिर है। विप्पमुक्काण : विप्रमुक्त विविध प्रकार से तीन करण तीन योग के सर्वभंगों से, प्रकर्षरूप से तीव्रभाव से। बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित (मुक्त) अथवा सर्वसंयोगों—बन्धनों से मुक्त या सर्वसंग-परित्यागी (माता-पिता आदि कुटुम्ब तथा परिजनों की आसक्ति से रहित अथवा शरीरादि के ममत्व से रहित)। १. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ३५ २. (क) शोभनेन प्रकारेण आगमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सस्थितात्मानः । —हारि. वृत्ति, पत्र ११६ (ख) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भा. १, पृ. १५३ ३. (क) विविधं अनेकैः प्रकारैः-प्रकर्षण-भावसारं मुक्ताः परित्यक्ता बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेति विप्रमुक्ताः । -हारि. वृत्ति, पत्र ११६ (ख) विप्पमुक्काण-अब्भिंतर-बाहिर-गंथ-बंधण विविहप्पगारमुक्काणं विप्पमुक्काणं । अगस्त्य. चूर्णि, पृ. ५९ (ग) 'संजोगा विप्पमुक्कस्स...' -उत्तरा. अ, १/१ (घ) 'सव्वओ विप्पमुक्कस्स ।' 'सव्संगनिनिम्मुक्के...।' -उत्तरा. अ. ९/१६, १८/५३
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy