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प्रथम अध्ययन : द्रुमपुष्पिका
है, (ग) भ्रमर जैसे किसी एक पुष्प में आसक्त या निर्भर नहीं होता इसी प्रकार श्रमण भी किसी खाद्य पदार्थ, घर या गांव-नगर में आसक्त नहीं होता। (घ) वह किसी निवासस्थान, कुटुम्ब, जाति, वर्ग आदि से प्रतिबद्ध न हो। (३) नाणापिंडरया नानापिण्डरता : पांच अर्थ—(क) साधु अनेक घरों से ग्रहण किये हुए (थोड़े-थोड़े) पिण्ड= आहार में रत (प्रसन्न), (ख) विविध प्रकार का अन्त, प्रान्त, नीरस या तुच्छ आहार ग्रहण करने में रुचि वाले हों, (ग) उक्खित्तचरिया आदि भिक्षाटन की नाना विधियों से भ्रमण करते हुए प्राप्त पिण्ड (आहार) में सन्तुष्ट रहे, (घ) कहां, किससे, किस प्रकार से अथवा कैसा भोजन मिले तो मैं लूंगा, इस प्रकार के अभिग्रहपूर्वक प्राप्त आहार में सन्तुष्ट अनुरक्त रहे। (ङ) आहार की गवेषणा में नाना प्रकार के वृत्तिसंक्षेप से प्राप्त पिण्ड में रत रहे ।५ (४) दंता -दान्ता : पांच अर्थ—(क) इन्द्रियों और मन के विकारों को दमन करने वाला, (ख) इन्द्रियों का दमन (नियंत्रित) करने वाला, (ग) संयम और तप से आत्मा को दमन करने वाला, (घ) क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि अध्यात्मदोषों के दमन करने में तत्पर और (ङ) जो आत्मा से आत्मा का दमन करता है।
तेण वुच्चंति साहुणो : आशय- इस उपसंहारात्मक वाक्य का आशय यह है कि इस अध्ययन में अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्षरूप से उल्लिखित महत्त्वपूर्ण गुणों से युक्त जो साधक हैं, वे इन्हीं गुणों के कारण साधु कहलाते
॥ दशवैकालिकसूत्र : प्रथम द्रुमपुष्पिका अध्ययन समाप्त ॥
६४. (क) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. १३, (ख) दश. (आचार म.मं.), भा. १, पृ. १०३, (ग) दश. (संतबालजी) . पृ. ६, (घ) दशवै. (आ. आत्मारामजी), पृ. १६, (ङ) “अणिस्सिया णाम अपडिबद्धा ।" जि. चूर्णि. पृ. ६८ ६५. नाना अनेकप्रकारोऽभिग्रहविशेषात् प्रतिगृहमल्पाल्पग्रहणाच्च पिण्ड-आहारपिण्डः, नाना चासौ पिण्डश्च नानापिण्डः, अन्तप्रान्तादिर्वा तस्मिन् रता-अनुद्वेगवन्तः ।
-हारि. वृत्ति पत्र ७३