SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : द्रुमपुष्पिका सम्मान-अपमान आदि में जो 'सम' है, वह समना है ।२ मुत्ता : दो अर्थ (१) मुक्ताः—बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से अथवा राग-द्वेष, मोह, आसक्ति एवं घृणा से मुक्त–निर्ग्रन्थ या मुक्ति निर्लोभता के गुण से युक्त। संति साहुणो : दो रूप (१)शान्ति-साधवः- शान्ति-ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप गुणविशिष्ट शान्ति की, सिद्धि की, उपशम, निर्वाण या अकुतोभय की या हिंसाविरति की साधना करने वाले । (२) अथवा सन्ति साधवः—(क) साधु हैं, साधु-जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र के योग से अपवर्ग या निर्वाण की साधना करते हैं, वे साधु हैं । लोए : दो अर्थ (१) लोक में अर्थात् जैनशास्त्रीय दृष्टि से अढाई द्वीप-प्रमाण मनुष्यलोक में। यह अर्थ यहां इसलिए संगत है कि मनुष्य सिर्फ अढाई द्वीप में ही उत्पन्न होते हैं, रहते हैं। (२) लोक में अर्थात्-भौगोलिक दृष्टि से वर्तमान जगत् में ५ ___ 'विहंगमा व पुप्फेसु' : रहस्यार्थ— यहां 'भ्रमर' के बदले 'विहंगम' शब्द का उल्लेख विशेष अर्थ को घोतित करने के लिए है। विहंगम' का अर्थ है—आकाश में भ्रमण-शील भ्रमर। जिस प्रकार भ्रमर स्वयं उड़ता हुआ अकस्मात् स्वाभाविकरूप से किसी वृक्ष के फूलों पर पहुंच जाता है, वह वृक्ष या फूल भ्रमर के पास नहीं आता, उसी प्रकार साधु को भी आकाशी वृत्ति से भिक्षा के लिए स्वयं भ्रमण करते हुए स्वाभाविक रूप से उच्चनीच-मध्यम, किसी भी कुल या घर में पहुंचना चाहिए, वह घर या गृहस्थ दाता भिक्षु के पास भिक्षा लेकर नहीं ५२. (क) श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः ।। -हा.वृ. पत्र ६८ (ख) शमयन्ति कषाय-नोकषायरूपानलमिति शमनाः । -दश. आचार म. मं. भा. १, पृ. ९२ (ग) जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो ॥ नत्थि य से कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ ॥ तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ न होई पावमणो । सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु ॥ नियुक्ति गाथा ..४, १५५, १५६ (घ) सह मनसा शोभनेन निदान-परिणाम-लक्षण-पापरहितेन च चेतसा वर्तत इति समनसः ॥ - स्थानांगटीका, पृ. २६८ ५३. (क) 'मुक्ताः बाह्याभ्यन्तरणे ग्रन्थेन ।' —हारि. टीका, पृ. ६८ . (ख) शान्ति नाम ज्ञानदर्शनचारित्राणि अभिधीयन्ते...तामेव गुणविशिष्टां शान्तिं साधयन्तीति साधवः, अहवा संतिं अकुओभयं भण्ण्इ । -जिनदास चूर्णि, पृ. ६६ (ग) संति विज्जति खेत्तरेसु वि एवं धम्मताकहणत्थं । अहवा संति-सिद्धिं साधेति संतिसाधवः । उवसमो वा संति, तं साहेति संतिसाहवो । णेव्वाणसाहणेण साधवः । (घ) "संति निव्वाणमाहियं ।" —सूत्रकृतांग, १/११/११ (ङ) उर्दू अहे य तिरियं, जे केइ तस-थावरा । सव्वत्थ विरंति विज्जा, संति....... ॥ .. -सूत्र कृ. १/११/११ ५४. साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः । -हारि. वृत्ति, पत्र ७९ ५५. दशवै. (आचार्य श्री आत्माराम जी म.), पृ. १२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy