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दशवैकालिकसूत्र
किसी प्रकार से जीवों की हिंसा (आरम्भ) नहीं करता और न किसी गृहस्थ के द्वारा उसके स्वयं के लिए बनाए हुए आहार में से बलात् लेता है, स्वेच्छा भावना से जो देता है, उसी में से थोड़ा-सा लेता है, जिससे दाता गृहस्थ को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। इसी प्रकार दूसरों को पीड़ा न पहुंचे, इस तरह से थोड़े-से आहार से अपना जीवन-निर्वाह कर लेना संयम है। साधु भिक्षाचरी करते समय अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा लेकर मर्यादित आहार से अपना निर्वाह कर लेता है। भिक्षाचरी करते समय पर्याप्त आहार न मिला या अपने नियमानुसार निर्दोष आहार बिलकुल न मिला, तो संतोष करके उपवास करके अपनी इच्छा का निरोध कर लेता है, तो अनायास ही तप हो जाता है। इस प्रकार साधुजीवन में भिक्षाचर्या द्वारा स्वाभाविक रूप से स्व ( श्रमण) धर्म का निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से पालन हो जाता है।८
भ्रमर और भिक्षु में अन्तर — यहां जो भ्रमर का दृष्टान्त दिया गया है, वह देशोपमा है, सर्वोपमा नहीं । भ्रमर में जो अनियतवृत्तिता का गुण है, उसी को लक्ष्य में रख कर शास्त्रकार ने भ्रमर का दृष्टान्त दिया है।
श्रमण और भिक्षाजीवी साधु में भिक्षु की यह विशेषता है कि भ्रमर तो वृक्ष के पुष्प चाहें या न चाहें, तो भी उनमें से रस चूस लेते हैं, किन्तु भिक्षु तो, गृहस्थ अपने आहारादि में से प्रसन्नता से, स्वेच्छा से दें, तभी ग्रहण करते हैं 10
'आवियइ' आदि पदों का फलितार्थ आविय थोड़ा-थोड़ा पीता है अथवा मर्यादा (प्रमाण) पूर्वक पीता है। फलितार्थ यह है कि जिस प्रकार पुष्पों से रस ग्रहण करते समय भ्रमर मर्यादा से काम लेता है, उसी प्रकार भिक्षु भी गृहस्थों से भिक्षा ग्रहण करते समय मर्यादा से काम ले । अर्थात् थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे, जिससे बाद में गृहस्थ को दूसरी बार बनाने की तकलीफ न पड़े। 'न य पुष्पं किलामेइ' - भ्रमर की वृत्ति यह है कि वह पुष्प या पुष्प के वर्ण- गन्ध को हानि न पहुंचाये, अथवा फूल को मुर्झाए बिना रस ग्रहण कर ले। इसी प्रकार भिक्षु भी किसी को हानि न पहुंचाये, डरा-धमकाए या टीकाटिप्पणी करके खिन्न किये बिना, जो दाता प्रसन्न मन से जितना दे, उतना ही लेकर सन्तुष्ट हो ।११
समणा, मुत्ता, संति - साहुणो आदि पदों के विभिन्न विशेष अर्थ 'समणा' : चार रूप, चार अर्थ (१) श्रमण – जो (धर्मपालन में या रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग में ) श्रम — पुरुषार्थ करते हैं अथवा जो कर्मक्षयार्थ श्रम तप करते हैं, (२) शमन — जो कषायों और नोकषायों का शमन करते हैं, इन्द्रियों को शान्त - दान्त रखते हैं, (३) समण— जो अपने समान समस्त जीवों के प्रति सम (आत्मवत्) रहते हैं । अथवा समस्त जीवों के प्रति न तो राग रखते हैं, न द्वेष, मध्यस्थ हैं, वे भी समन हैं। (४) सुमनस् अथवा समनस्— जिसका मन शुभ है, सबका हितचिन्तक है, वह सुमना है अथवा जिसका मन पाप से रहित है, जो शुभ मन से युक्त है, स्वजन - परजन या
४८. दशवै. ( गुजराती अनुवाद, संतबालजी), पृ. ५
४९. (क) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म. ), पृ. १०
(ख) दशवै निर्युक्ति गा. १०० - १०१
५०. दशवै. ( गुजराती अनुवाद, संतबालजी), पृ. ५ ५१. हारि. वृत्ति, पत्र ३२-३३