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________________ दूसरी दशा] [१३ नदी पार करना पड़े तथा फिर २९ रात्रि वहाँ रहने के बाद तीसवें दिन विहार करने पर भी ऐसा ही प्रसंग उपस्थित हो जाये तो परिस्थितिवश (अपवाद रूप में) उसे एक मास में दो बार नदी पार करना कल्पमर्यादा निर्वाह के लिये आवश्यक हो सकता है। इससे अधिक तीन चार बार 'उदक-लेप' लगाने में अन्य अनावश्यक कारण होने से वह शबल दोष कहा जाता है। सेवा आदि कार्यों के निमित्त यदि अधिक उदक-लेप लगे तो भी उसे शबल दोष नहीं कहा जाता है। अतः भिक्षु शीत और ग्रीष्म काल में मार्ग की पहले से ही पूर्ण जानकारी करके विवेकपूर्वक विचरण करे। जल में चलने से अनेक त्रस प्राणी तथा फूलण आदि के अनंत जीवों की विराधना हो सकती है। अत: छह काया का रक्षक भिक्षु इस शबल दोष का सेवन न करे। १०. माया-सेवन-माया एक ऐसा भयंकर कषाय है कि इसके सेवन में संयम और सम्यक्त्व दोनों का नाश हो जाता है। ज्ञातासूत्र में कहा है कि मल्लिनाथ तीर्थंकर के जीव ने पूर्वभव में संयम तप की महान् साधना के काल में माया का सेवन करते हुए अधिक तप किया। उस तप की उग्र साधना में भी माया के सेवन से मिथ्यात्व की प्राप्ति और स्त्रीवेद का निकाचित बंध हुआ।अतः भिक्षुओं को तप-संयम की साधना में भी कभी माया का सेवन नहीं करना चाहिये। उत्तराध्ययनसूत्र अ. ३ में कहा है कि सरल आत्मा की शुद्धि होती है और ऐसी शुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है। अतः संयम की आराधना के इच्छुक भिक्षु को माया का सेवन नहीं करना चाहिये। इस सूत्र में एक मास में तीन बार मायासेवन करने को शबल दोष कहा है किन्तु एक या दो बार मायासेवन करने पर शबल दोष नहीं कहा है, इसमें उदक-लेप के समान विशेष परिस्थिति ही प्रमुख कारण होती है, वह इस प्रकार है ___ व्यवहार सूत्र के आठवें उद्देशक में विधान है कि निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थनियों को पहले आज्ञा लेकर मकान में ठहरना कल्पता है, किन्तु पहले ठहर कर फिर आज्ञा लेना नहीं कल्पता है। यदि भिक्षु को यह ज्ञात हो कि इस क्षेत्र में मकान मिलना दुर्लभ है तो वहाँ ठहरने योग्य स्थान में ठहर कर फिर आज्ञा ले सकता है। जिसमें कुछ माया का भी सेवन होता है। विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें व्यव. उ. ८। क्योंकि साध्वियों को तो मकान प्राप्त करना आवश्यक ही होता है और भिक्षुओं के लिये भी बाल, ग्लान, वृद्ध आदि की दृष्टि से कभी आवश्यक हो जाता है। महीने में दो बार ऐसी परिस्थिति आ जाये तो मायासेवन कर मकान प्राप्त करना शबल दोष नहीं कहा गया है। किन्तु सामान्य कारणों से एक बार मायासेवन करना भी शबल दोष समझना चाहिए। अत: सूत्रोक्त कारण के अतिरिक्त भिक्षु कदापि माया का सेवन न करे। ११. शय्यातर-पिंड-जिस मकान में भिक्षु ठहरा हुआ हो, उस शय्या (मकान) का दाता शय्यातर कहा जाता है। उसके घर का आहारादि शय्यातर-पिंड या सागारिय-पिंड कहा जाता है। क्योंकि मकान मिलना दुर्लभ ही होता है और मकान देने वाले के घर से आहारादि अन्य पदार्थ ग्रहण करे तो मकान की दुर्लभता और भी बढ़ जाती है। सामान्य गृहस्थ यही सोचते हैं कि जो अपने घर में अतिथि रूप में ठहरते हैं तो उनकी सभी व्यवस्था उसे ही करनी होती है। भिक्षु का भी ऐसा आचार हो
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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