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________________ : ४] [ दशाश्रुतस्कन्ध न करना। (१६) अनावश्यक बोलना या वाक्-युद्ध करना (जोर-जोर से बोलना)। (१७) संघ में भेद उत्पन्न करने वाला वचन बोलना । (१८) कलह करना - झगड़ा करना । (१९) सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक कुछ न कुछ खाते रहना । (२०) एषणासमिति से असमिति होना अर्थात् अनेषणीय भक्तपानादि ग्रहण करना । स्थविर भगवन्तों ने ये बीस असमाधिस्थान कहे हैं। - ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन - श्रमण- समाचारी कथित विधि-निषेधों के अनुसार संयम का आचरण न करना अथवा जिन-जिन प्रवृत्तियों से आत्मविराधना तथा संयमविराधना होती है, वे सभी प्रवृत्तियां करना संयमी जीवन में असमाधि-स्थान कहलाती हैं। इस व्याख्या के अनुसार असमाधि स्थानों की संख्या निर्धारित करना यद्यपि कठिन है, फिर भी सामान्य जानकारी के लिए स्थविर भगवन्तों ने इस पहली दशा में बीस असमाधि-स्थान कहे हैं। १. शीघ्र चलना - उद्विग्नमन ( अशान्त - चित्त) वाला भिक्षु यदि शीघ्र गति से गमन करता है तो उसका किसी से टकराना, पत्थर आदि से ठोकर लगना, पैर में कांटा, कांच आदि का चुभना आदि अनेक प्रकार की शारीरिक क्षतियां होना संभव है। इसके अतिरिक्त कीड़ी आदि अनेक प्रकार के छोटेमोटे जीवों का पैरों तले दब जाना संभव है । दशवै. अ. ५, उ. १ में भी कहा गया है कि "चरेमंदमणुविग्गो" अर्थात् किसी भी प्रकार की उताबल न करते हुए भिक्षु मंदगति से गमन करे तथा दशवै. अ. ५, उ. २ में भी कहा है"दवदवस्स न गच्छेज्जा" अर्थात् भिक्षु दबादब - शीघ्र न चले । अतः अतिशीघ्र गति से बिना देखे चलना पहला असमाधिस्थान है। २. अप्रमार्जन - जहाँ अंधेरा हो तथा मार्ग में कीड़ियां आदि छोटे-मोटे जीव अधिक संख्या में, वहाँ दिन में भी बिना प्रमार्जन किये चलने से जीवों की हिंसा (विराधना) होती है। जिससे भिक्षु के संयम की क्षति होती है। अत्यन्त आवश्यक कार्यों से रात्रि में गमनागमन करना चाहे तो बिना प्रमार्जन किए चलने से त्रसजीवों की विराधना होती है, क्योंकि कई कीड़े-मकोड़े रात्रि में इधर-उधर चलते-फिरते रहते हैं। और अंधकार के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते हैं । अतः बिना प्रमार्जन किये चलना दूसरा असमाधिस्थान है। ३. दुष्प्रमार्जन करना - जितनी भूमि का प्रमार्जन किया है, उसके अतिरिक्त भूमि पर बिना विवेक के इधर-उधर पैर रखने से जीवों की हिंसा होना संभव है। अतः प्रमार्जन की हुई भूमि पर ही पैर रखकर चलना उचित है। प्रमार्जन विवेक से करना आवश्यक है, उपेक्षाभाव से प्रमार्जन करना दुष्प्रमार्जन कहा जाता । यह तीसरा असमाधिस्थान है। है। ४. आवश्यकता से अधिक शय्या - संस्तारक रखना - श्रमणसमाचारी में वस्त्र - पात्र आदि उपकरण सीमित रखने का विधान है। फिर भी भिक्षु आवश्यकता से अधिक शय्या - संस्तारकादि रखता
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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