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________________ उपयोग किया जा सकता है। किसी स्थान पर अनेक श्रमण रहते हों, उनमें से कोई श्रमण किसी गृहस्थ के यहां पर कोई उपकरण भल गया हो और अन्य श्रमण वहां पर गया हो तो गहस्थ श्रमण से कहे कि यह उपकरण आपके समुदाय के संत का है तो संत उस उपकरण को लेकर स्वस्थान पर आये और जिसका उपकरण हो उसे दे दे। यदि वह उपकरण किसी संत का न हो तो न स्वयं उसका उपयोग करे और न दूसरों को उपयोग के लिए दे किन्तु निर्दोष स्थान पर उसका परित्याग कर दे। यदि श्रमण वहां से विहार कर गया हो तो उसकी अन्वेषणा कर स्वयं उसे उनके पास पहुंचावे। यदि उसका सही पता न लगे तो एकान्त स्थान पर प्रस्थापित कर दे। आहार की चर्चा करते हए बताया है कि आठ ग्रास का आहार करने वाला अल्प-आहारी, बारह ग्रास का आहार करने वाला अपार्धावमौदरिक, सोलह ग्रास का आहार करने वाला द्विभागप्राप्त, चौबीस ग्रास का आहार करने वाला प्राप्तावमौदरिक, बत्तीस ग्रास का आहार करने वाला प्रमाणोपेताहारी एवं बत्तीस ग्रास से एक ही ग्रास कम खाने वाला अवमौदरिक कहलाता है। नौवें उद्देशक में बताया है कि शय्यातर का आहारादि पर स्वामित्व हो या उसका कुछ अधिकार हो तो वह आहार श्रमण-श्रमणियों के लिए ग्राह्य नहीं है। इसमें भिक्षुप्रतिमाओं का भी उल्लेख है जिसकी चर्चा हम दशाश्रुतस्कन्ध के वर्णन में कर चुके हैं। दसवें उद्देशक में यवमध्यचन्द्रप्रतिमा या वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का स्वरूप प्रतिपादित करते हए कहा गया है कि जो यव (जौ) के कण समान मध्य में मोटी और दोनों ओर पतली हो वह यवमध्यचन्द्रप्रतिमा है। जो वज्र के समान मध्य में पतली और दोनों ओर मोटी हो वह वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा है। यवमध्यचन्द्रप्रतिमा का धारक श्रमण एक मास पर्यन्त अपने शरीर के ममत्व को त्याग कर देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है और शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की, द्वितीया को दो दत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ग्रहण करता है। इस प्रकार क्रमश: एक-एक दत्ति बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को १५ दत्ति आहार की और १५ दत्ति पानी की ग्रहण करता है। कृष्णपक्ष में क्रमशः एक दत्ति कम करता जाता है और अमावस्या के दिन उपवास करता है। इसे यवमध्यचन्द्रप्रतिमा कहते हैं। वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को १५ दत्ति आहार की और १५ दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है। उसे प्रतिदिन कम करते हुए यावत् अमावस्या को एक दत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है। शुक्लपक्ष में क्रमश: एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा को उपवास किया जाता है। इस प्रकार ३० दिन की प्रत्येक प्रतिमा के प्रारम्भ के २९ दिन दत्ति के अनुसार आहार और अन्तिम दिन उपवास किया जाता है। व्यवहार के आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार, ये पांच प्रकार हैं। इनमें आगम का स्थान प्रथम है और फिर क्रमशः उनकी चर्चा विस्तार से भाष्य में है। स्थविर के जातिस्थविर, सूत्रस्थविर और प्रव्रज्यास्थविर, ये तीन भेद हैं। ६० वर्ष की आयु वाला श्रमण जातिस्थविर या वयःस्थविर कहलाता है। ठाणांग. समवायांग का ज्ञाता सत्रस्थविर और दीक्षा धारण करने के २० वर्ष पश्चात् की दीक्षा वाले निर्ग्रन्थ प्रव्रज्यास्थविर कहलाते हैं। शैक्ष भूमियां तीन प्रकार की हैं-सप्त-रात्रिदिनी चातुर्मासिकी और षण्मासिकी। आठ वर्ष से कम उम्र वाले बालक-बालिकाओं को दीक्षा देना नहीं कल्पता। जिनकी उम्र लघु है वे आचारांग सूत्र के पढ़ने के
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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