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उपाध्याय वही बन सकता है जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, निर्ग्रन्थ के आचार में निष्णात है, संयम में प्रवीण है, आचारांग आदि प्रवचनशास्त्रों में पारंगत है, प्रायश्चित्त देने में पूर्ण समर्थ है, संघ के लिए क्षेत्र आदि का निर्णय करने में दक्ष है, चारित्रवान है, बहुश्रुत है आदि ।
आचार्य वह बन सकता है जो श्रमण के आचार में कुशल, प्रवचन में पटु, दशाश्रुतस्कन्ध-कल्पबृहत्कल्प-व्यवहार का ज्ञाता है और कम से कम पांच वर्ष का दीक्षित है।
आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिनी, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक पद उसे दिया जा सकता है जो श्रमण के आचार में कुशल, प्रवचनदक्ष, असंक्लिष्टमना व स्थानांग समवायांग का ज्ञाता है।
अपवाद में एक दिन की दीक्षापर्याय वाले साधु को भी आचार्य, उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। उस प्रकार का साधु प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोदकारी, अनुमत, बहुमत व उच्च कुलोत्पन्न एवं गुणसंपन्न होना आवश्यक है।
आचार्य अथवा उपाध्याय की आज्ञा से ही संयम का पालन करना चाहिए। अब्रह्म का सेवन करने वाला आचार्य आदि पदवी के अयोग्य है। यदि गच्छ का परित्याग कर उसने वैसा कार्य किया है तो पुनः दीक्षा धारण कर तीन वर्ष बीतने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शांत हो, कषाय आदि का अभाव हो तो आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
चतुर्थ उद्देशक में कहा है कि आचार्य अथवा उपाध्याय के साथ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में कम से कम एक अन्य साधु होना चाहिए और गणावच्छेदक के साथ दो । वर्षाऋतु में आचार्य और उपाध्याय के साथ दो व गणावच्छेदक के साथ तीन साधुओं का होना आवश्यक है।
आचार्य की महत्ता पर प्रकाश डालकर यह बताया गया है कि उनके अभाव में किस प्रकार रहना
चाहिए ।
आचार्य, उपाध्याय यदि अधिक रुग्ण हों और जीवन की आशा कम हो तो अन्य सभी श्रमणों को बुलाकर आचार्य कहें कि मेरी आयु पूर्ण होने पर अमुक साधु को अमुक पदवी प्रदान करना। उनकी मृत्यु के पश्चात् यदि वह साधु योग्य प्रतीत न हो तो अन्य को भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य हो तो उसे ही प्रतिष्ठित करना चाहिए । अन्य योग्य श्रमण आचारांग आदि पढ़कर दक्ष न हो जाय तब तक आचार्य आदि की सम्मति से अस्थायी रूप से साधु को किसी भी पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य पदाधिकारी प्राप्त होने पर पूर्वव्यक्ति को अपने पद से पृथक् हो जाना चाहिए। यदि वह वैसा नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी होता है।
दो श्रमण साथ में विचरण करते हों तो उन्हें योग्यतानुसार छोटा और बड़ा होकर रहना चाहिए और एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय को भी ।
पांचवें उद्देशक में प्रवर्तिनी को कम से कम दो अन्य साध्वियों के साथ शीतोष्णकाल में ग्रामानुग्राम विचरण करना चाहिए और गणावच्छेदिका के साथ तीन अन्य साध्वियां होनी चाहिए। वर्षाऋतु में प्रवर्तिनी के साथ तीन और गणावच्छेदिका के साथ चार साध्वियां होनी चाहिए।
प्रवर्तिनी आदि की मृत्यु और पदाधिकारी की नियुक्ति के सम्बन्ध में जैसा श्रमणों के लिए कहा गया है वैसा ही श्रमणियों के लिए भी समझना चाहिए।
वैयावृत्य के लिए सामान्य विधान यह है कि श्रमण, श्रमणी से और श्रमणी, श्रमण से वैयावृत्यन करावे किन्तु अपवादरूप में परस्पर सेवा-शुश्रूषा कर सकते हैं।
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