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श्रमण-श्रमणियों को गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही इन पांच महानदियों में से महीने में एक से अधिक बार एक नदी पार नहीं करनी चाहिए। ऐरावती आदि छिछली नदियां महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं।
श्रमण-श्रमणियों को घास की ऐसी निर्दोष झोपड़ी में, जहां पर अच्छी तरह से खड़ा नहीं रहा जा सके, हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना वर्ण्य है। यदि निर्दोष तृणादि से बनी हुई दो हाथ से कम ऊंची झोपड़ी है तो वर्षाऋतु में वहां नहीं रह सकते। यदि दो हाथ से अधिक ऊंची है तो वहाँ वर्षाऋतु में रह सकते हैं।
पंचम उद्देशक में बताया है कि यदि कोई देव स्त्री का रूप बनाकर साधु का हाथ पकड़े और वह साधु उसके कोमल स्पर्श को सुखरूप माने तो उसे मैथुन प्रतिसेवन दोष लगता है और उसे चातुर्मासिक गुरुप्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार साध्वी को भी उसके विपरीत पुरुष स्पर्श का अनुभव होता है और उसे सुखरूप माने तो चातुर्मासिक गुरु-प्रायश्चित्त आता है।
कोई श्रमण बिना क्लेश को शान्त किए अन्य गण में जाकर मिल जाय और उस गण के आचार्य को ज्ञात हो जाय कि यह श्रमण वहां से कलह करके आया है तो उसे पाँच रात दिन का छेद देना चाहिए और उसे शान्त कर अपने गण में पुनः भेज देना चाहिए।
सशक्त या अशक्त श्रमण सूर्योदय हो चुका है या अभी अस्त नहीं हुआ है ऐसा समझकर यदि आहारादि करता है और फिर यदि उसे यह ज्ञात हो जाय कि अभी तो सूर्योदय हुआ ही नहीं है या अस्त हो गया है तो उसे आहारादि तत्क्षण त्याग देना चाहिए। उसे रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता। सूर्योदय और सूर्यास्त के प्रति शंकाशील होकर आहारादि करने वाले को रात्रिभोजन का दोष लगता है। श्रमण-श्रमणियों को रात्रि में डकारादि के द्वारा मुंह में अन्न आदि आ जाय तो उसे बाहर थूक देना चाहिए।
यदि आहारादि में द्वीन्द्रियादि जीव गिर जाय तो यतनापूर्वक निकाल कर आहारादि करना चाहिए। यदि निकलने की स्थिति में न हो तो एकान्त निर्दोष स्थान में परिस्थापन कर दे। आहारादि लेते समय सचित्त पानी की बूंदें आहारादि में गिर जाएं और वह आहार गरम हो तो उसे खाने में किचित् मात्र भी दोष नहीं है। क्योंकि उसमें पड़ी हुई बूंदें अचित्त हो जाती हैं। यदि आहार शीतल है तो न स्वयं खाना चाहिए और न दूसरों को खिलाना चाहिए अपितु एकान्त स्थान पर परिस्थापन कर दना
निर्ग्रन्थी को एकाकी रहना, नग्न रहना, पात्ररहित रहना, ग्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटुकासन, वीरासन, दण्डासन, लगुडशायी आदि आसन पर बैठकर कायोत्सर्ग करना वर्ण्य है।
__निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को परस्पर मोक (पेशाब या थूक) का आचमन करना अकल्प्य है किन्तु रोगादि कारणों से ग्रहण किया जा सकता है।
परिहारकल्प में स्थित भिक्षु को स्थविर आदि के आदेश से अन्यत्र जाना पड़े तो शीघ्र जाना चाहिए और कार्य करके पुनः लौट आना चाहिए। यदि चारित्र में किसी प्रकार का दोष लगे तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध कर लेना चाहिए।
__छठे उद्देशक में यह बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अलीक (झूठ) वचन, हीलितवचन, खिंसितवचन, परुषवचन, गार्हस्थिकवचन, व्यवशमितोदीरणवचन (शांत हुए कलह को उभारने वाला वचन), ये छह प्रकार के वचन नहीं बोलना चाहिए।
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अविरति-अब्रह्म, नपुंसक, दास आदि का आरोप लगाने वाले को प्रायश्चित्त आता है।
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