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________________ दसवां उद्देशक] [४५३ २८. बारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलन्धरोपपात नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। २९. तेरह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, देवेन्द्रपरियापनिका और नागपरियापनिका नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। ३०. चौदह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को स्वप्नभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। ___३१. पन्द्रह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को चारणभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। ___३२. सोलह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को तेजानिसर्ग नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। ३३. सत्तरह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को आसीविषभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। ३४. अठारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को दृष्टिविषभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। ३५. उन्नीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को दृष्टिवाद नामक बारहवां अंग पढ़ाना कल्पता है। ३६. बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ सर्वश्रुत को धारण करने वाला हो जाता है। विवेचन-इन पन्द्रह सूत्रों में क्रमशः आगमों के अध्ययन का कथन दीक्षापर्याय की अपेक्षा से किया गया है। जिसमें तीन वर्ष से लेकर बीस वर्ष तक का कथन है। यह अध्ययनक्रम इस सूत्र के रचयिता श्री भद्रबाहुस्वामी के समय उपलब्ध श्रुतों के अनुसार है। उसके बाद में रचित एवं निर्मूढ सूत्रों का इस अध्ययनक्रम में उल्लेख नहीं है। अतः उववाई आदि १२ उपांगसूत्र एवं मूलसूत्रों के अध्ययनक्रम की यहां विवक्षा नहीं की गई है। फिर भी आचारशास्त्र के अध्ययन कर लेने पर अर्थात् छेदसूत्रों के अध्ययन के बाद और ठाणांग, समवायांग तथा भगवती सूत्र के अध्ययन के पहले या पीछे कभी भी उन शेष सूत्रों का अध्ययन करना समझ लेना चाहिए। ___आवश्यकसूत्र का अध्ययन तो उपस्थापना के पूर्व ही किया जाता है तथा भाष्य में आचारांग व निशीथ के पूर्व दशवैकालिक और उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययन करने का निर्देश किया गया है। उससे सम्बन्धित उद्धरण तीसरे उद्देशक में दे दिये गये हैं तथा निशीथ उ. १९ में इस विषय में विवेचन किया है। १. दशवैकालिकसूत्र के विषय में ऐसी धारणा प्रचलित है कि भद्रबाहुस्वामी से पूर्व शय्यंभव स्वामी ने अपने पुत्र 'मनक' के लिए इस सूत्र की रचना की थी। फिर संघ के आग्रह से इसे पुनः पूर्षों में विलीन नहीं किया और स्वतंत्र रूप में रहने दिया।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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