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नवम उद्देशक]
[४२३ ३४. सागारिक के सीर वाली भोजनशाला से सागारिक का साझीदार बंटवारे में प्राप्त खाद्य सागग्री में से देता है तो साधु को लेना कल्पता है।
३५. सागारिक के सीर वाले आम्र आदि फलों में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियों को आम्रादि देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है।
३६. सागारिक के सीर वाले आम्रादि फलों में से सागारिक का साझीदार बंटवारे में प्राप्त आम्र आदि फल यदि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना कल्पता है।
विवेचन-पूर्व सूत्रों में शय्यातरपिंड घरों में से लेने, न लेने का विधान किया गया है और इन सूत्रों में विक्रयशाला अर्थात् दुकानों में से खाद्यपदार्थ या अन्य वस्त्रादि लेने, न लेने का विधान किया गया है।
इन सूत्रों का आशय यह है कि शय्यातर एवं अशय्यातर (अन्य गृहस्थ) की सामूहिक विक्रयशाला हो, उसमें कभी-कोई विभाजित वस्तु में शय्यातर का स्वामित्व न हो या कोई पदार्थ अन्य गृहस्थ के स्वतन्त्र स्वामित्व का हो तो उसे ग्रहण करने पर शय्यातरपिंड का दोष नहीं लगता है। अतः सूत्रोक्त दुकानों से वे पदार्थ गृहस्थ के निमन्त्रण करने पर या आवश्यक होने पर विवेकपूर्वक ग्रहण किये जा सकते हैं।
सूत्रगत विक्रयशाला के पदार्थ इस प्रकार हैं
(१) तेल आदि, (२) गुड़ आदि, (३) अनाज किराणा के कोई अचित्त पदार्थ, (४) वस्त्र, (५) सूत (धागे), (६) कपास (रूई), (७) सुगंधित तेल इत्रादि (ग्लान हेतु औषध रूप में), (८) मिष्ठान्न (९) भोजनसामग्री (१०) आम्रादि अचित्त फल (उबले हुए या गुठली रहित खण्ड)।
इन सूत्रों से यह स्पष्ट हो जाता है कि साधु-साध्वी घरों के अतिरिक्त कभी कहीं दुकान से भी कल्प्यवस्तु ग्रहण कर सकते हैं । दशवै. अ. ५ उ. १ गा. ७२ में भी रज से युक्त खाद्यपदार्थ हों तो विक्रयशाला से लेने का निषेध किया गया है, अर्थात् रजरहित हों तो वे ग्रहण किए जा सकते हैं।
यहां टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि क्षेत्र, काल, व्यक्ति एवं जनसाधारण के वातावरण का अवश्य ही विवेक रखना चाहिए। अन्यथा दुकानों से पदार्थ ग्रहण करने में साधु की या जिनशासन की हीलना हो सकती है।
'सोडियसाला-'सुखडी' तिप्रसिद्धमिष्ठान्नविक्रयशाला कांदविकापण इत्यर्थः'कंदोई की दुकान।'
-नि. भाष्य (घासी.) ___ भाष्यादि में 'मद्यशाला' अर्थ किया है, किन्तु साधु-साध्वियों का मद्य-मांस से कोई सम्पर्क ही नहीं होता है, क्योंकि वे पदार्थ आगम में नरक के कारणभूत कहे गये हैं। अत: उपर्युक्त अर्थ ही संगत है। इस विषय की अधिक जानकारी निशीथ उ. १९ सू. १ विवेचन में देखें।