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________________ आठवां उद्देशक] [४०९ १२. यदि यह जाने कि निर्ग्रन्थ-निग्रन्थियों को यहां प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक सुलभ नहीं है तो पहले स्थान या शय्या-संस्तारक ग्रहण करना और बाद में आज्ञा लेना कल्पता है। (किन्तु ऐसा करने पर यदि संयतों के और शय्या-संस्तारक के स्वामी के मध्य किसी प्रकार का कलह हो जाय तो आचार्य उन्हें इस प्रकार कहे-'हे आर्यो! एक ओर तुमने इनकी वसति ग्रहण की है, दूसरी ओर इनसे कठोर वचन बोल रहे हो') 'हे आर्यो! इस प्रकार तुम्हें इनके साथ ऐसा दुहरा अपराधमय व्यवहार नहीं करना चाहिए।' इस प्रकार अनुकूल वचनों से आचार्य उस वसति के स्वामी को अनुकूल करे। __विवेचन-किसी भी स्थान पर बैठना या ठहरना हो तो भिक्षु को पहले आज्ञा लेनी चाहिए, बाद में ही वहां ठहरना चाहिए। इसी प्रकार पाट आदि अथवा तृण आदि अन्य कोई भी पदार्थ लेने हों तो उनकी पहले आज्ञा लेनी चाहिए, बाद में ही उसे ग्रहण करना या उपयोग में लेना चाहिए। किसी भी वस्तु की आज्ञा लेने के पहले ग्रहण करना और फिर आज्ञा लेना अविधि है। इससे तृतीय महाव्रत दूषित होता है। तथापि सूत्र में मकान की दुर्लभता को लक्ष्य में रखते हुए परिस्थितिवश कभी इस प्रकार अविधि से ग्रहण करने की आपवादिक छूट दी गई है। विशेष परिस्थिति के अतिरिक्त इस छूट का अति उपयोग या दुरुपयोग नहीं करना चाहिए तथा यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आपवादिक स्थिति का निर्णय गीतार्थ (बहुश्रुत) भिक्षु ही कर सकते हैं। अल्पज्ञ अबहुश्रुत-अगीतार्थ भिक्षु यदि ऐसा करे तो उसकी यह अनधिकार चेष्टा है। फिर भी गीतार्थ-बहुश्रुत की निश्रा से वे इस अपवाद का आचरण कर सकते हैं। इस सूत्र के अन्तिम वाक्य की व्याख्या में बताया गया है कि-'जहां दुर्लभ शय्या हो उस गांव में कुछ साधु आगे जाएँ और किसी उपयुक्त मकान में आज्ञा लिए बिना ही ठहर जाएँ, जिससे मकान का मालिक रुष्ट होकर वाद-विवाद करने लगे, तब पीछे से अन्य भिक्षु या आचार्य पहुंच कर उस साधु को आक्रोशपूर्वक कहें कि 'अरे आर्य! तू यह दुगुना अपराध क्यों कर रहा है। एक तो इनके मकान में ठहरा है, दूसरे इन्हीं से वाद-विवाद कर रहा है। चुप रह, शांति रख।' इस प्रकार डांट कर फिर मकान-मालिक को प्रसन्न करते हुए नम्रता से वार्तालाप करके आज्ञा प्राप्त करें। अधिक विवेचन के लिए दशा. द. २ देखें। पतित या विस्मृत उपकरण की एषणा १३. निग्गंथस्सणंगाहावइकुलं पिण्डवाय पडियाए अणुपविट्ठस्स अण्णयरे अहालहुसए उवगरणजाए परिब्भढे सिया।तंच केई साहम्मिए पासेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय जत्थेव अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा प०-'इमे भे अज्जा! किं परिणाए?' उ०-से य वएज्जा-'परिणाए' तस्सेव पडिणिज्जाएयव्वे सिया। से य वएज्जा-'नो परिणाए' तं नो अप्पणा परिभुंजेज्जा नो अण्णमण्णस्स दावए, एगते बहुफासुए थण्डिले परिट्टवेयव्वे सिया।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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