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________________ ३८८] [व्यवहारसूत्र यदि निर्ग्रन्थी के पास ऐसी साध्वी आवे तो वह अपने साम्भोगिक साधुओं को अर्थात् आचार्यउपाध्याय आदि को पूछकर, उनकी आज्ञा होने पर ही उस साध्वी को रख सकती है, उसे वाचना देनालेना कर सकती है, उपस्थापित कर सकती है अथवा उसके साथ आहार या साथ में बैठना आदि व्यवहार कर सकती है। किन्तु पूछे बिना, सलाह लिए बिना ऐसी साध्वी के साथ उक्त कार्य करना या निर्णायक उत्तर देना नहीं कल्पता है। आचार्य आदि यदि अन्यत्र हों तो उनकी आज्ञा प्राप्त होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। ___ यदि निर्ग्रन्थ के पास अर्थात् आचार्यादि के पास ऐसी साध्वी आए तो वे उसके लिये साध्वियों को अर्थात् प्रवर्तिनी को पूछकर निर्णय ले सकते हैं अथवा कभी बिना पूछे भी निर्णय कर उस साध्वी को प्रवर्तिनी के सुपुर्द कर सकते हैं और उस साध्वी के इत्वरिक आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी का निर्देश भी कर सकते हैं। ___ उसके बाद विषम प्रकृति आदि किसी भी कारण से प्रवर्तिनी उसे न रख सके तो उसे मुक्त कर देना चाहिए, जिससे वह स्वतः अपने पूर्वस्थान में चली जावे। निर्ग्रन्थी के लिए आचार्य आदि को पूछना आवश्यक इसलिए है कि वे उसके छल-प्रपंचों को या आने वाले विघ्नों को जान सकते हैं और उस साध्वी के लक्षणों से उसके भविष्य को भी जान सकते हैं। आचार्यादि के द्वारा रखी गई साध्वी को यदि प्रवर्तिनी नहीं रखती हो तो उसका कारण यह हो सकता है कि पूर्व प्रवर्तिनी के साथ उनकी मित्रता हो या शत्रुता हो अथवा उस साध्वी से किसी अनिष्ट का भय हो, इत्यादि अनेक कारण भाष्य में विस्तार से बताये गये हैं। . सामान्यतया तो प्रवर्तिनी आदि की सलाह लेकर ही साध्वी को रखना चाहिए। सम्बन्धविच्छेद करने सम्बन्धी विधि-निषेध ३. जे निग्गंथा या निग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो णं कप्पइ निग्गंथाणं पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए। कप्पइणं पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए। जत्थेव अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-'अहं णं अन्जा! तुमए सद्धिं इमंमि कारणम्मि पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेमि।' से य पडितप्पेज्जा, एवं से नो कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए। से य नो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए। ४. जे निग्गंथा य निग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो णं कप्पइ निग्गंथीणं पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए। कप्पइणं पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोग करेत्तए। जत्थेव ताओ अप्पणो आयरिय-उवज्झाए पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-'अहं णं भंते! अमुगीए अजाए सद्धिं इमम्मि कारणम्मि पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेमि।'
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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