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________________ ३८४] [व्यवहारसूत्र प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी इस विषय में निम्न सूचना की गई हैब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को इन कार्यों का त्याग करना चाहिए विषयराग, स्नेहराग, द्वेष और मोह की वृद्धि करने वाला प्रमाद तथा पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधुओं का शील-आचार, घृतादि की मालिश करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार बगल, शिर, हाथ-पैर और मुंह धोना, मर्दन करना, पैर आदि दबाना, पगचम्पी करना, परिमर्दन करना, सारे शरीर को मलना, विलेपन करना, सुगन्धित चूर्ण-पाउडर से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि का धूप देना, शरीर को सजाना, सुशोभित बनाना, बाकुशिक कर्म करना, नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना, हंसीमजाक करना, विकारयुक्त भाषण करना, गीत, वादित्र सुनना, नटों, नृत्यकारों, रस्से पर खेल दिखलाने वालों और कुश्तीबाजों का तमाशा देखना तथा इसी प्रकार की अन्य बातें जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं ब्रह्मचर्य का आंशिक विनाश या पूर्णतः विनाश होता है, वैसी समस्त प्रवृत्तियों का ब्रह्मचारी पुरुष को सदैव के लिए त्याग कर देना चाहिए। __इन त्याज्य व्यवहारों के साथ आगे कहे जाने वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित करना चाहिये, यथा स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, जमे हुए या इससे भिन्न मैल को धारण करना, मौनव्रत धारण करना, केशों का लुंचन, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, अचेल (वस्त्ररहित) होना अथवा अल्पवस्त्र धारण करना, भूख-प्यास सहना, अल्प उपधि रखना, सर्दी-गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या या जमीन पर आसन करना, भिक्षादि के लिए गृहस्थ के घर में जाना और प्राप्ति या अप्राप्ति को समभाव से सहना, मान-अपमान-निन्दा को एवं दंशमशक के क्लेश को सहन करना, द्रव्यादि संबंधी अभिग्रह करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय प्रवृत्तियों से अन्तःकरण को भावित करना, जिससे ब्रह्मचर्यव्रत अत्यन्त दृढ हो। गच्छगत और एकाकी विहारी सभी तरुण भिक्षुओं को ये सावधानियां रखना अत्यंत हितकर है। इन सावधानियों से युक्त जीवन व्यतीत करने पर प्रस्तुत सूत्रोक्त दूषित स्थिति के उत्पन्न होने की प्रायः संभावना नहीं रहती है। सूत्रगत दूषित प्रवृत्ति से भिक्षु का स्वास्थ्य एवं संयम दूषित होता है एवं पुण्य क्षीण होकर सर्वथा दुःखमय जीवन बन जाता है। अतः सूचित सभी सावधानियों के साथ शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। अन्य-गण से आये हुए को गण में सम्मिलित करने का निषेध १०. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा निग्गंथिं अण्णगणाओ आगयं खुयायारं, सबलायारं, भिन्नायारं, संकिलिट्ठायारं तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता अपडिक्कमावेत्ता, अनिंदावेत्ता, अगरहावेत्ता, अविउट्टावेत्ता, अविसोहावेत्ता, अकरणाए अणब्भुटावेत्ता, अहारिहं पायच्छित्तं अपडिवज्जावेत्ता उवट्ठावेत्तए वा, सर्भुजित्तए वा, संवसित्तए वा तीसे इत्तरियं दिसंवा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। ११. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा निग्गंथं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं जाव
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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