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छट्ठा उद्देशक]
[३८१ ७. ग्राम यावत् राजधानी (सनिवेश) में एक वगडा वाले, एक द्वार वाले, एक निष्क्रमणप्रवेश वाले उपाश्रय में अकेले बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ भिक्षु को दोनों समय संयमभाव की जागृति रखते हुए रहना कल्पता है।
विवेचन-पूर्व सूत्रद्विक में अकृतसूत्री-अगीतार्थ भिक्षुओं के निवास से संबंधित कथन किया गया है और प्रस्तुत सूत्रद्विक में बहुश्रुत-गीतार्थ अकेले भिक्षु को ग्रामादि में किस प्रकार के उपाश्रय में किस प्रकार से रहना या नहीं रहना, यह विधान किया गया है।
__ भाष्य में अगीतार्थ से संबंधित सूत्रों का और इन एकाकी भिक्षुओं से संबंधित सूत्रों का स्पष्टीकरण करते हुए इन्हें गच्छ की निश्रागत होना कहा है और 'एगवगडा' आदि विशेषणों को उपाश्रयों से संबंधित करके विस्तृत विवेचन किया है। किन्तु उपलब्ध प्रतियों में 'उवस्सय' शब्द लिपिदोष से छूट गया है, ऐसा प्रतीत होता है। इसीलिए यहां 'उवस्सय' शब्द को रखते हुए अर्थ एवं विवेचन किया है।
प्रस्तुत सूत्रद्विक से यह फलित होता है कि
१. बहुश्रुत एकाकी विचरण करने वाले भिक्षु को अनेक द्वार एवं अनेक मार्ग वाले उपाश्रय में निवास नहीं करना चाहिए।
२. किन्तु एक द्वार, एक मार्ग वाले उपाश्रय में बहुश्रुत भिक्षु रह सकता है।
३. एकलविहारी भिक्षु को उभयकाल (सोते और उठते समय अथवा दिन में और रात्रि में) वैराग्य एवं संयमगुणों को पुष्ट करने वाली धर्म-जागरणा से धर्मभावना की वृद्धि करते हुए रहना चाहिए।
४. अल्पश्रुत अल्प-आगमज्ञ-अगीतर्थ भिक्षु को किसी भी प्रकार के उपाश्रय में अकेला नहीं रहना चाहिए।
गीतार्थ बहुश्रुत भिक्षु को अकेला रहना तो इस सूत्र से या अन्य आगम-विधानों से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है, तथापि किस उपाश्रय में निवास करना या न करना अथवा किस तरह जागरूक रहना, यह विधान करना इन सूत्रों का आशय है।
विभिन्न प्रकार के उपाश्रयों में गीतार्थ भिक्षु के अकेले रहने पर अथवा अनेक अगीतार्थों के रहने पर किन-किन दोषों की सम्भावना रहती है, यह समझने के लिए जिज्ञासुओं को भाष्य का अवलोकन करना चाहिये।
उसी आशय का कुछ स्पष्टीकरण आगे के सूत्रों में स्वयं आगमकार ने किया है।
व्यव. भाष्य में इस उद्देशक का सार गुजराती भाषा में दिया है, उसमें भी इन चारों सूत्रों का अर्थ उपाश्रय से संबंधित किया है।
ग्रामादि से संबंधित अर्थ करना संगत भी नहीं होता है, क्योंकि प्रतिमाधारी जिनकल्पी आदि एकलविहार साधना करने वालों के तथा परिस्थितिक एकलविहार करने वालों के विचरण में ऐसे विधान का पालन होना भी अशक्य होता है। अतः भाष्यकारकृत अर्थ विवेचन को प्रामाणिक मानकर उपाश्रय से संबंधित अर्थ करना ही उचित है एवं आगमसम्मत है।