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छट्ठा उद्देशक] अगीतार्थों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त
४. से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा (सन्निवेसंसि वा) एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमण-पवेसाए (उवस्सए) नो कप्पइ बहूणं अगडसुयाणं एगयओ वत्थए।
अत्थि याइं केइ आयारपकप्पधरे, नत्थि णं केइ छए वा परिहारे वा। नत्थि याइं णं केइ आयारपकप्पधरे से संतरा छेए वा परिहारे वा।
५.से गामंसि वा जाव रायहाणिंसिवा (सन्निवेसंसिवा)अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभिनिक्खमण-पवेसाए ( उवस्सए) नो कप्पइ बहूणं अगडसुयाणं एगयओ वत्थए।
अस्थि याई णं केइ आयारपकप्पधरे, जे तत्तियं रयणिं संवसइ, नत्थि णं केइ छए वा परिहारे वा।
नत्थियाइंणं केइआयारपकप्पधरेजे तत्तियं रयणिं संवसइ, सव्वेसिंतेसिं तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा।
४. ग्राम यावत् राजधानी में (सन्निवेश में) एक प्राकार वाले, एक द्वार वाले और एक
-प्रवेश वाले उपाश्रय में अनेक अकतश्रत (अल्पज्ञ) भिक्षओं को एक साथ रहना नहीं कल्पता है।
___ यदि उनमें कोई आचारप्रकल्पधर हो तो वे दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित के पात्र नहीं होते
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यदि उनमें कोई आचारप्रकल्पधर न हो तो वे मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं।
५. ग्राम यावत् राजधानी (सन्निवेश) में अनेक प्राकार वाले, अनेक द्वार वाले और अनेक निष्क्रमण-प्रवेश वाले उपाश्रय में अनेक अकृतश्रुत (अल्पज्ञ) भिक्षुओं को एक साथ रहना नहीं कल्पता है।
यदि कोई आचारप्रकल्पधर तीसरे दिन उनके साथ रहे तो वे दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं।
यदि कोई आचारप्रकल्पधर तीसरे दिन भी वहां नहीं रहता हो तो उन सभी को उस मर्यादाउल्लंघन का तप या छेद प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन-इन सूत्रों में आचारांग एवं निशीथसूत्र अर्थसहित कण्ठस्थ धारण नहीं करने वाले अबहुश्रुत भिक्षुओं को 'अगडसुय'-अकृतश्रुत-कहा गया है। अर्थात् प्रमुख बनकर विचरण करने की योग्यताप्राप्ति के लिए (आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आचारांग और निशीथसूत्र) का अध्ययन एवं कण्ठस्थ धारण नहीं करने वाला भिक्षु आगमिक शब्दों में 'अगडसुय' कहा गया है।
ऐसे एक या अनेक भिक्षुओं के विचरण करने का निषेध उद्देशक तीन के प्रथम सूत्र में किया