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________________ छट्ठा उद्देशक] [३७७ २. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर मल-मूत्रादि का त्याग एवं शुद्धि करें तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। ३. सशक्त आचार्य या उपाध्याय इच्छा हो तो सेवा के कार्य करें और इच्छा न हो तो न करें, फिर भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। ४. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर किसी विशेष कारण से यदि एक-दो रात अकेले रहें तो भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। ५. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर किसी विशेष कारण से यदि एक-दो रात अकेले रहें तो भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। ३. गण में गणावच्छेदक के दो अतिशय कहे गये हैं, यथा १. गणावच्छेदक उपाश्रय के अन्दर (किसी विशेष कारण से) यदि एक-दो रात अकेले रहें तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। २. गणावच्छेदक उपाश्रय के बाहर (किसी विशेष कारण से) यदि एक-दो रात अकेले रहें तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। विवेचन-आचारकल्प की कुछ विशेषताओं का यहां 'अतिशय' शब्द से निर्देश किया गया है। ठाणांगसूत्र के पांचवें और सातवें अध्ययन में भी आचार्य-उपाध्याय के पांच और सात अतिशय कहे गये हैं। वहाँ पांच अतिशय तो प्रस्तुत सूत्र के समान हैं और दो विशेष कहे गये हैं, यथा(१) उपकरणातिशय और (२) भक्तपानातिशय। भाष्य में इन्हीं दो अतिशयों के स्थान पर पांच अतिशय विशेष कहे हैं, यथा भत्ते, पाणे, धुवणे, पसंसणा हत्थपायसोए य। आयरिए अतिसेसा, अणातिसेसा अणायरिए॥२२९॥ भाष्य गा. २३० से २४६ तक इसका विवेचन किया गया है, उसका सारांश इस प्रकार है(१) क्षेत्र-काल के अनुकूल सर्वदोषमुक्त आहार आचार्य को देना, (२) तिक्त कटुक अम्ल आदि रसों से रहित अचित्त जल आचार्य को देना, (३) आचार्य के मनोनुकूल तनोनुकूल एवं जनोनुकूल वस्त्रादि उन्हें देना एवं मलिन हो जाने पर उनके उपकरण यथासमय प्रक्षालन कर शुद्ध करना।। (४) गम्भीर, मृदु, क्षमादि गुणों से सम्पन्न, अनेक संयमगुणों की खान, श्रुतवान्, कृतज्ञ, दाता, उच्चकुलोत्पन्न, उपद्रवों से रहित, शांतमूर्ति, बहुश्रुत, तपस्वी इत्यादि गुणों में से वे जिन गुणों से युक्त हों, उन विद्यमान गुणों से उसकी प्रशंसा करना। (५) हाथ, पांव, मुख, नयन का प्रक्षालन कर शुद्ध रखना। भाष्यगाथा २३८ से २४६ तक दृष्टान्त देकर यह स्पष्ट किया है कि यदि आचार्य दृढ़ देह वाला हो, स्वाभाविक ही निर्मल देह वाला हो, तेजस्वी एवं यशस्वी हो तो उपर्युक्त अतिशय के आचरणों का सेवन उन्हें नहीं करना चाहिए।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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