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________________ ३७०] [व्यवहारसूत्र परस्पर किये जाने वाले सेवाकार्य(१) आहार-पानी लाकर देना या लेना अथवा निमंत्रण करना। (२) वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों की याचना करके लाकर देना या स्वयं के याचित उपकरण देना। (३) उपकरणों का परिकर्म कार्य-सीना, जोड़ना, रोगनादि लगाना। (४) वस्त्र, रजोहरण आदि धोना। (५) रजोहरण आदि उपकरण बनाकर देना। (६) प्रतिलेखन आदि कर देना। इत्यादि अनेक कार्य यथासम्भव समझ लेने चाहिए। इन्हें आगाढ़ परिस्थितियों के बिना परस्पर करना-करवाना साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता है एवं करने-करवाने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। आचार्य आदि पदवीधरों के भी प्रतिलेखना आदि सेवा कार्य केवल भक्ति प्रदर्शित करने के लिये साध्वियां नहीं कर सकती हैं। यदि आचार्य आदि इस तरह अपना कार्य अकारण करवावें तो वे भी गुरुचौमासी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। तात्पर्य यह है कि साथ में रहने वाले साधु जो सेवाकार्य कर सकते हों तो साध्वियों से नहीं कराना चाहिए, उसी प्रकार साध्वियों को भी जब तक अन्य साध्वियां करने वाली हों तब तक साधुओं से अपना कोई भी कार्य नहीं करवाना चाहिए। सर्पदंशचिकित्सा के विधि-निषेध २१. निग्गंथं चणंराओ वा वियाले वादीहपुट्ठो लूसेज्जा, इत्थी वा पुरिसस्सओमावेज्जा, पुरिसो वा इत्थीए ओमावेजा, एवं से कप्पइ, एवं से चिट्ठइ, परिहारं च से नो पाउणइ, एस कप्पो थेर-कप्पियाणं। एवं से नो कप्पड़, एवं से नो चिट्ठइ, परिहारं च से पाउणइ, एस कप्पे जिणकप्पियाणं। ___२१. यदि किसी निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी को रात्रि या विकाल (सन्ध्या) में सर्प डस ले और उस समय स्त्री निर्ग्रन्थ की और पुरुष निर्ग्रन्थी की सर्पदंश चिकित्सा करे तो इस प्रकार उपचार करना उनको कल्पता है। इस प्रकार उपचार कराने पर भी उसकी निर्ग्रन्थता रहती है तथा वे प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं। यह स्थविरकल्पी साधुओं का आचार है। जिनकल्प वालों को इस प्रकार का उपचार कराना नहीं कल्पता है, इस प्रकार उपचार कराने पर उनका जिनकल्प नहीं रहता है और वे प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। यह जिनकल्पी साधुओं का आचार है। विवेचन-बृहत्कल्पसूत्र के छठे उद्देशक में ६ प्रकार की कल्पस्थिति कही गई है, अर्थात् ६ प्रकार का आचार कहा गया है। वहां पर स्थविरकल्पी और जिनकल्पी का आचार भिन्न-भिन्न सूचित किया है। उस आचार-भिन्नता का एक उदाहरण इस सूत्र में स्पष्ट किया गया है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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