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________________ ३२०] [व्यवहारसूत्र यहां सूत्र में गणावच्छेदक के साथ-साथ अन्य पदवियों का भी संग्रह कई प्रतियों में किया गया है, जिनकी कुल संख्या कुछ प्रतियों में ६ या ७ भी मिलती है। भाष्यादि व्याख्याग्रन्थों में कहा है कि प्रत्येक विशाल गच्छ में पांच पदवीधरों का होना आवश्यक है। अन्यथा उस गच्छ को साधुओं के समाधि से रहने के अयोग्य, अव्यस्थित और त्याज्य गच्छ कहा है। वे पांच पदवियां ये हैं(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) प्रवर्तक, (४) स्थविर, (५) गणावच्छेदक। इनमें से प्रवर्तक के अतिरिक्त चार पदवीधरों के कर्तव्य, अधिकार आदि का कथन अनेक आगमों में है। यथा-(१) आचार्य और उपाध्याय के नेतृत्व के बिना बाल तरुण संतों को रहना ही निषिद्ध है। (२) कुछ ऐसे आवश्यक कर्तव्य होते हैं जो 'स्थविर' को पूछकर करने का विधान है। (३) प्रायश्चित्त देना या गच्छ से अलग करना आदि कार्य गणावच्छेदक के निर्देशानुसार किए जाने का कथन है। भाष्यादि व्याख्याग्रन्थों में प्रवर्तक का कार्य श्रमण-समाचारी में प्रवृत्ति कराने का कहा गया है। इन पांच के अतिरिक्त सूत्रों में गणी और गणधर पद के पाठ भी मिलते हैं। इनमें से 'गणधर' की व्याख्या इस उद्देशक के प्रथम सूत्र में की गई है और गणी शब्द आचार्य का ही पर्यायवाची शब्द है अर्थात् गण-गच्छ को धारण करने वाला 'गणी' या आचार्य होता है। यथा-ठाणा. अ. ३, अ.८; उत्तरा. अ. ३ और व्यव. उ. १/अभि. रा. कोश भा. ३, पृ. ८२३ । ___ अथवा एक प्रमुख आचार्य की निश्रा में अन्य अनेक छोटे आचार्य (कुछ शिष्यों के) होते हैं, वे गणी कहे जाते हैं। प्रस्तुत सूत्रद्वय (७-८) का विधान गणावच्छेदक और स्थविर के लिए तो उचित है, किन्तु गणी गणधर और प्रवर्तक के लिए आठ वर्ष की दीक्षापर्याय और उक्त श्रुत का कण्ठस्थ होना अनिवार्य नहीं हो सकता। क्योंकि तीन या पांच वर्ष की दीक्षापर्याय से ही उनकी योग्यता अंकित की जा सकती है। स्थविर का समावेश तो गणावच्छेदक में हो सकता है, क्योंकि गणावच्छेदक श्रुत की अपेक्षा स्थविर ही होते हैं। अतः यह तीसरा सूत्रद्विक गणावच्छेदक से सम्बन्धित है। शेष पदवियों का सूत्र के अन्त में जो संग्रह मिलता है, वे शब्द कभी कालान्तर से किसी के द्वारा अधिक जोड़ दिये गये हैं। ऐसा भी सम्भव है, क्योंकि उपलब्ध प्रतियों में ये शब्द हीनाधिक मिलते हैं और प्रसंगसंगत भी नहीं हैं। यद्यपि तीनों सूत्रद्विक में क्रमशः (१) आचारप्रकल्प, (२) दसा-कप्प-ववहार, (३) ठाणांग, समवायांग, जघन्यश्रुत-अध्ययन एवं धारण करना कहा गया है, तथापि अध्ययनक्रम के दसवें उद्देशक के विधान से एवं निशीथ उद्देशक १९ के प्रायश्चित्त-विधानों एवं उसकी व्याख्या से यह सिद्ध होता है (१) उपाध्याय के लिए-१. आवश्यकसूत्र २. दशवैकालिकसूत्र, ३. उत्तराध्ययनसूत्र, ४. आचारांगसूत्र, ५. निशीथसूत्र, यों कम से कम पांच सूत्रों को कण्ठस्थ धारण करना अनिवार्य है। (२) आचार्य के लिए-१. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. आचारांग, ५. निशीथ, ६. सूत्रकृतांग, ७. दशाश्रुतस्कन्ध, ८. बृहत्कल्प, ९. व्यवहारसूत्र, यों कम से कम कुल ९ सूत्रों को कण्ठस्थ धारण करना आवश्यक है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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