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________________ तीसरा उद्देशक] [३०९ की कल्पना सर्वथा असंगत है। अतः इन दोनों सूत्रों का विषय है-संघाटक के प्रमुख रूप में विचरण करना। आचार्यादि पद की अपेक्षा का कथन तो आगे के सूत्रों में किया गया है। ___ यदि कोई भिक्षु गणप्रमुख के रूप में विचरना चाहे तो उसका पलिछन्न होना आवश्यक है। अर्थात् जो शिष्यसम्पदा और श्रुतसम्पदा सम्पन्न है, वही प्रमुख रूप में विचरण कर सकता है। यहां भाष्यकार ने शिष्यसम्पदा एवं श्रुतसम्पदा के चार भंग कहे हैं, उनमें से प्रथम भंग के अनुसार जो दोनों प्रकार की सम्पदा से युक्त हो उसे ही प्रमुख रूप में विचरण करना चाहिए। यदि पृथक्-पृथक् शिष्य करने की परम्परा न हो तो श्रुतसम्पन्न (आगमवेत्ता) एवं बुद्धिमान भिक्षु गण के कुछ साधुओं की प्रमुखता करता हुआ विचरण कर सकता है। जिस भिक्षु के एक या अनेक शिष्य हों वह शिष्यसम्पदा युक्त कहा जाता है। जो आवश्यकसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र तथा आचारांगसूत्र और निशीथसूत्रों के मूल एवं अर्थ को धारण करने वाला हो अर्थात् जिसने इतना मूल श्रुत उपाध्याय की निश्रा से कंठस्थ धारण किया हो एवं आचार्य या उपाध्याय से इन सूत्रों के अर्थ की वाचना लेकर उसे भी कंठस्थ धारण किया हो एवं वर्तमान में वह श्रुत उसे उपस्थित हो तो वह श्रुतसम्पन्न कहा जाता है। जिसके एक भी शिष्य नहीं है एवं उपर्युक्त श्रुत का अध्ययन भी जिसने नहीं किया है, वह गण धारण के अयोग्य है। यदि किसी भिक्षु के शिष्यसम्पदा है, किन्तु वह बुद्धिमान् एवं श्रुतसम्पन्न नहीं है अथवा धारण किए हुए श्रुत को भूल गया है, वह भी गण धारण के अयोग्य है। किन्तु यदि किसी को वृद्धावस्था (६० वर्ष से अधिक) होने के कारण श्रुत विस्मृत हो गया हो तो वह श्रुतसम्पन्न ही कहा जाता है एवं गण धारण कर सकता है। __ इस सूत्र में 'भगवं च से' इस पद का प्रयोग किया गया है। इसमें 'भगवं' शब्द के साथ 'च'और 'से' होने से यह 'सम्बोधन' रूप नहीं है। इसलिए यह शब्द गण धारण करने की इच्छा वाले अनगार के लिए ही प्रयुक्त है तथा इसके साथ 'पलिच्छन्ने और अपलिच्छन्ने' शब्दों को जोड़कर दो प्रकार की योग्यता का विधान किया गया है। इसलिए 'भगवं च से' इस पद का अर्थ है-यदि वह भिक्षु (अनगार भगवंत) और 'पलिच्छन्ने' इस पद का अर्थ है-शिष्य एवं श्रुतसम्पदा-सम्पन्न। भाष्यकार ने शिष्यसम्पदा वाले को 'द्रव्यपलिच्छन्न' और श्रुतसम्पन्न को 'भावपलिच्छन्न' कहा है। उस चौभंगी युक्त विवेचन से भावपलिच्छन्न को ही गण धारण करके विचरने योग्य कहा है। जिसका सारांश यह है कि जो आवश्यक श्रुत से सम्पन्न हो एवं बुद्धिसम्पन्न हो, वह गण धारण करके विचरण कर सकता है। भाष्यकार ने यह भी स्पष्ट किया है १. विचरण करते हुए वह स्वयं के और अन्य भिक्षुओं के ज्ञान दर्शन चारित्र की शुद्ध आराधना करने करवाने में समर्थ हो। २. जनसाधारण को अपने ज्ञान तथा वाणी एवं व्यवहार से धर्म के सन्मुख कर सकता हो।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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