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प्रव्रज्या से एकपाक्षिक न होने के दोष
मानता है।
[ व्यवहारसूत्र
१. अन्य कुल गण की प्रव्रज्या वाला आचार्य बन जाने पर भी गण के साधुओं को अपना नहीं
२. गण के कई साधु आचार्य को अपना नहीं मानते हैं।
३. दोनों के हृदय में पूर्ण आत्मीयता न होने से प्रेम या अनुशासन में वृद्धि नहीं होती है, किन्तु उपेक्षाभाव एवं अनुशासनहीनता की वृद्धि होती है ।
४. परस्पर आत्मीयभाव न होने से स्वार्थवृत्ति एवं शिष्यलोभ से कलह आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे जिनशासन की हीलना होती है ।
५. भाष्यकार ने यह भी बताया है कि अधिक लम्बा समय बीत जाने पर भी दोनों में परायेपन का भाव नष्ट नहीं होता है, जिससे गच्छ में भेद उत्पन्न हो जाते हैं ।
इसलिए प्रथम भंगवर्ती एकपाक्षिक भिक्षु को ही आचार्यादि पद पर अल्पकाल के लिये या जीवनपर्यंत के लिए स्थापित करना चाहिए।
सूत्रगत आपवादिक विधान की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने सर्वप्रथम तीसरे भंग वाले अर्थात् श्रुत से एकपाक्षिक भिक्षु को ही पद पर नियुक्त करने को कहा है।
प्रथम एवं तृतीय भंग वाले योग्य साधु के अभाव में जब किसी को आचार्य आदि पद देना आवश्यक हो जाय तब क्रम से दूसरे या चौथे भंग वाले को भी पद दिया जा सकता है। क्योंकि जिस गण में अनेक साधु-साध्वियों का समुदाय हो और जिसमें नवदीक्षित, तरुण या बालवय वाले साधुसाध्वी हों, उन्हें आचार्य उपाध्याय या प्रवर्तिनी के विना रहने का व्यव. उ. ३ सू. ११-१२ में सर्वथा निषेध किया है। वहां यह भी बताया है कि श्रमण निर्ग्रन्थ दो पदवीधरों के अधीनस्थ ही रहते हैं और श्रमणी निर्ग्रन्थियां तीन पदवीधरों के नेतृत्व में रहती हैं।
यदि परिस्थितिवश किसी भी भंग वाले अनेकपाक्षिक भिक्षु को आचार्य आदि पद दिया जाय तो वह इन गुणों से युक्त होना चाहिए
१. प्रकृति से कोमल स्वभाव वाला हो ।
२. गच्छ के समस्त साधु-साध्वियां उसके आचार्य होने में सम्मत हों।
३. वह विनयगुण-संपन्न हो ।
४. आचार्य साधु आदि के गृहस्थजीवन का स्वजन संबंधी हो अथवा अनेक साधु-साध्वियां उसके गृहस्थजीवन के संबंधी हों।
५. जिसने गण में अपने व्यवहार से आत्मीयता स्थापित कर ली हो ।
इत्यादि अनेक गुणों से संपन्न हो तो उस अनेकपाक्षिक भिक्षु को भी आचार्य आदि पद पर नियुक्त किया जा सकता है।
जिस गण में अनेक गीतार्थ भिक्षु शिष्यादि की ॠद्धि से संपन्न हों तो एक को मूल आचार्य एवं