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________________ श्रमण भगवान् महावीर के पावन प्रवचनों का सूत्र रूप में संकलन-आकलन गणधरों ने किया, वह अंग साहित्य के नाम से विश्रुत हुआ। उसके आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञाता, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद ये बारह विभाग हैं। दृष्टिवाद का एक विभाग पूर्व साहित्य है। ____ आवश्यकनियुक्ति के अनुसार गणधरों ने अर्हद्भाषित मातृकापदों के आधार से चतुर्दश शास्त्रों का निर्माण किया, जिसमें सम्पूर्ण श्रुत की अवतारणा की गई। ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्व के नाम से विश्रुत हुए। इन पूर्वो की विश्लेषण-पद्धति अत्यधिक क्लिष्ट थी अतः जो महान् प्रतिभासम्पन्न साधक थे उन्हीं के लिए वह पूर्व साहित्य ग्राह्य था। जो साधारण प्रतिभासम्पन्न साधक थे उनके लिए एवं स्त्रियों के उपकारार्थ द्वादशांगी की रचना की गई। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने लिखा है कि दृष्टिवाद का अध्ययन-पठन स्त्रियों के लिये वर्ण्य था। क्योंकि स्त्रियां तुच्छ स्वभाव की होती हैं, उन्हें शीघ्र ही गर्व आता है। उनकी इन्द्रियां चंचल होती हैं। उनकी मेधा-शक्ति पुरुषों की अपेक्षा दुर्बल होती है एतदर्थ उत्थान-समुत्थान प्रभृति अतिशय या चमत्कार युक्त अध्ययन और दृष्टिवाद का ज्ञान उनके लिए नहीं है। मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने प्रस्तुत विषय का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि स्त्रियों को यदि किसी तरह दृष्टिवाद का अध्ययन करा दिया जाए तो तुच्छ प्रकृति के कारण 'मैं दृष्टिवाद की अध्येता हूँ' इस प्रकार मन में अहंकार आकर पुरुष के परिभव-तिरस्कार प्रभृति में प्रवृत्त हो जाये जिससे उनकी दुर्गति हो सकती है एतदर्थ दया के अवतार महान् परोपकारी तीर्थंकरों ने उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय चमत्कार युक्त अध्ययन एवं दृष्टिवाद के अध्ययन का स्त्रियों के लिए निषेध किया। बहत्कल्पनिर्यक्ति में भी यही बात आई है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने और मलधारी हेमचन्द्र ने स्त्रियों की प्रवृत्ति की विकृति व मेधा की दुर्बलता के सम्बन्ध में जो लिखा है वह पूर्ण संगत नहीं लगता है। वे बातें परुष में भी सम्भव हैं। अनेक स्त्रियां पुरुषों से भी अधिक प्रतिभासम्पन्न व गम्भीर होती हैं। यह शास्त्र में आये हुए वर्णनों से भी स्पष्ट है। जब स्त्री अध्यात्म-साधना का सर्वोच्चपद तीर्थंकर नामकर्म का अनुबन्ध कर सकती है, केवलज्ञान प्राप्त कर सकती है तब दृष्टिवाद के अध्ययनार्थ जिन दुर्बलताओं की ओर संकेत किया गया है और जिन दुर्बलताओं के कारण स्त्रियों को दृष्टिवाद की अधिकारिणी नहीं माना गया है उन पर विज्ञों को तटस्थ दृष्टि से गम्भीर चिन्तन करना चाहिए। १. धम्मोवाओ पवयणमहवा पुव्वाई देसया तस्स। सव्वंजिणा ण गणहरा, चोद्दसपुव्वा उ ते तस्स॥ सामाइयाइयावा वयजीवनिकाय भावणा पढमं। एसो धम्मोवादो जिणेहिं सव्वेहिं उवइट्ठो॥ -आवश्यकनियुक्ति गा० २९२-२९३ २. तुच्छा गारवबहुला चलिंदिया दुब्बला धिईए य। इति आइसेसज्झयणा भूयावाओ य नो त्थीणं॥ ३. ....इह विचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात् तेषां च दुर्मेधत्वात् स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानाधिकार एव तासां तुच्छत्वादि दोषबहुलत्वात्। -विशेषावश्यकभाष्य गाथा ५५ की व्याख्या, पृ०४८ प्रकाशक-आगमोदय समिति बम्बई ३७
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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