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________________ २९२] [व्यवहारसूत्र १२. उन्मादप्राप्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। १३. उपसर्गप्राप्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। १४. कलहयुक्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। १५. प्रायश्चित्तप्राप्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। १६. भक्तप्रत्याख्यानी ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। १७. प्रयोजनाविष्ट (आकांक्षायुक्त) ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। विवेचन- इन सूत्रों में बारह प्रकार की विभिन्न अवस्थाओं वाले भिक्षुओं का कथन है। ये सभी भिक्षु अपनी उन अवस्थाओं के साथ-साथ रुग्ण भी हैं। यदि उनकी सेवा करने वाले भिक्षु खेद का अनुभव करते हों तो भी जिम्मेदार गीतार्थ गणावच्छेदक का यह कर्तव्य होता है कि वह उस भिक्षु की सेवा की उपेक्षा न करे और न ही उसे गच्छ से अलग करे, किन्तु अन्य सेवाभावी भिक्षुओं के द्वारा उसकी अग्लानभाव से सेवा करवावे। भाष्य में अग्लानभाव का अर्थ यह किया गया कि रुचिपूर्वक या उत्साहपूर्वक सेवा करना, अथवा स्वयं का कर्तव्य समझ कर सेवा करना। इन सूत्रों में निम्न गुणों की प्रमुखता है १. सेवाकार्य, २. ग्लान के प्रति अनुकंपा भाव, ३. संघ की प्रतिष्ठा। सेवाकार्य संयमजीवन में प्रमुख गुण है एवं यह एक आभ्यन्तर तप है, जिसका विस्तृत विवेचन निशीथ उ. १० में किया गया है। ठाणांग सूत्र अ. ३ उ. ४ में तथा भग. श. ८ उ. ८ में तीन को अनुकंपा के योग्य कहा है१. तपस्वी (विकट तप करने वाला), २. ग्लान, ३. नवदीक्षित। प्रस्तुत सूत्रों में भी यही बताया गया है कि किसी भी परिस्थिति में या प्रायश्चित्त काल में यदि भिक्षु रुग्ण हो तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए और न ही उसे गण से निकालना चाहिए।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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