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प्रस्तावना त्रीणि छेदसूत्राणि : एक समीक्षात्मक अध्ययन वैदिक परम्परा में जो स्थान वेद का है, बौद्ध परम्परा में जो स्थान त्रिपिटक का है, ईसाई धर्म में जो स्थान बाईबिल का है, इस्लाम धर्म में जो स्थान कुरान का है, वही स्थान जैनपरम्परा में आगम-साहित्य का है।
वेद तथा बौद्ध और जैन आगम-साहित्य में महत्त्वपूर्ण भेद यह रहा है कि वैदिक परम्परा के ऋषियों ने शब्दों की सुरक्षा पर अधिक बल दिया जबकि जैन और बौद्ध परम्परा में अर्थ पर अधिक बल दिया गया है। यही कारण है कि वेदों के शब्द प्रायः सुरक्षित रहे हैं और अर्थ की दृष्टि से वे एक मत स्थिर नहीं कर सके हैं। जैन और बौद्ध परम्परा में इससे बिल्कुल ही विपरीत रहा है। वहाँ अर्थ की सुरक्षा पर अधिक बल दिया गया है, शब्दों की अपेक्षा अर्थ अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। यही कारण है कि आगमों के पाठभेद मिलते हैं, पर उनमें प्रायः अर्थभेद नहीं है।
वेद के शब्दों में मंत्रों का आरोपण किया गया है जिससे शब्द तो सुरक्षित रहे, पर उसके अर्थ नष्ट हो गए। जैन आगम-साहित्य में मंत्र-शक्ति का आरोप न होने से अर्थ पूर्ण रूप से सुरक्षित रहा है।
वेद किसी एक ऋषि विशेष के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, जब कि जैन गणिपिटक एवं बौद्ध त्रिपिटक क्रमशः भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध की वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैन आगमों के अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर रहे हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं।
जैन और वैदिक परम्परा की संस्कृति पृथक्-पृथक् रही है। जैनसंस्कृति अध्यात्म प्रधान है। जैन आगमों में अध्यात्म का स्वर प्रधान रूप से झंकृत रहा है, वेदों में लौकिकता का स्वर मुखरित रहा है। यहाँ पर यह बात भी विस्मरण नहीं होनी चाहिए कि आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व अणु-विज्ञान, जीव-विज्ञान, वनस्पति-विज्ञान आदि के सम्बन्ध में जो बातें जैन आगमों में बताई गई हैं, उन्हें पढ़कर आज का वैज्ञानिक भी विस्मित है। जैन आगमसाहित्य का इन अनेक दृष्टियों से भी महत्त्व रहा है।
कुछ समय पूर्व पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों की यह धारणा थी कि वेद ही आगम और त्रिपिटक के मूल स्रोत हैं, पर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त ध्वंसावशेषों ने विज्ञों की धारणा में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है कि आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में जो संस्कृति थी वह पूर्ण रूप से विकसित थी और वह श्रमण संस्कृति थी।
__ निष्पक्ष विचारकों ने यह सत्य-तथ्य एक मत से स्वीकार किया है कि श्रमणसंस्कृति के प्रभाव से ही वैदिक परम्परा ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतों को स्वीकार किया है। आज जो वैदिक परम्परा में अहिंसादि का वर्णन है वह जैनसंस्कृति की देन है।
आगम शब्द के अनेक अर्थ हैं। उस पर मैने विस्तार से चर्चा की है।
१. संस्कृति के चार अध्याय : पृ. १२५
-रामधारीसिंह 'दिनकर'