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[ बृहत्कल्पसूत्र
कई प्रतियों में भ्रम से 'भिज्जा' के स्थान पर 'भुज्जो' आदि पाठ भी बन गये हैं, जो कि टीकाकार के बाद में बने हैं।
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छह प्रकार की कल्पस्थिति
२०. छव्विहा कप्पट्ठिई पण्णत्ता, तं जहा१. सामाइय- संजय - कप्पट्ठिई,
२. छेओवट्ठावणिय-संज- कप्पट्ठिई,
३. निव्विसमाण - कप्पट्ठिई,
४. निव्विट्टकाइय- कप्पट्ठिई,
५. जिणकम्पट्ठिई,
६. थेरकप्पट्टिई ।
कल्प की स्थिति - आचार की मर्यादाएं छह प्रकार की कही गई हैं। यथा
१. सामायिकचारित्र की मर्यादाएं,
२. छेदोपस्थापनीयचारित्र की मर्यादाएं,
३. परिहारविशुद्धिचारित्र में तप वहन करने वाले की मर्यादाएं,
४. परिहारविशुद्धिचारित्र में गुरुकल्प व अनुपरिहारिक भिक्षुओं की मर्यादाएं,
५. गच्छनिर्गत विशिष्ट तपस्वी जीवन बिताने वाले जिनकल्पी भिक्षुओं की मर्यादाएं,
६. स्थविरकल्पी अर्थात् गच्छवासी भिक्षुओं की मर्यादाएं ।
विवेचन - यहां 'कल्प' का अर्थ संयत का आचार है। उसमें अवस्थित रहना कल्पस्थिति कहा जाता है।
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की समाचारी (मर्यादा) को भी कल्पस्थिति कहा जाता है। वह छह प्रकार की कही गई है । यथा
१. सामायिकसंयत - कल्पस्थिति - समभाव में रहना और सभी सावद्य प्रवृत्तियों का परित्याग करना, यह सामायिकसंयत - कल्पस्थिति है ।
यह दो प्रकार की होती है
१ . इत्वरकालिक - जब तक पंच महाव्रतों का आरोपण न किया जाए तब तक इत्वरकालिक सामायिक - कल्पस्थिति है ।
२. यावज्जीविक - जीवनपर्यन्त रहने वाली सामायिक यावज्जीविक सामायिककल्पस्थिति है । जिसमें पुनः महाव्रतारोपण न किया जाय, यह मध्यम तीर्थंकरों के शासनकाल में होती है। २. छेदोपस्थापनीय - संयत- कल्पस्थिति - बड़ी दीक्षा देना या पुनः महाव्रतारोपण करना ।