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छट्ठा उद्देशक ]
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११. दिप्तचित्त वाली निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है ।
१२. यक्षाविष्ट निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है ।
१३. उन्माद - प्राप्त निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है।
१४. उपसर्ग-प्राप्त निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है।
१५. साधिकरण निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है
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१६. सप्रायश्चित्त निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है।
१७.भक्त-पानप्रत्याख्यात निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है।
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१८. अर्थ-जात निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ ग्रहण करे या अवलम्बन दे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है ।
विवेचन-निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों का उत्सर्गमार्ग तो यही है कि वे कभी भी एक दूसरे का स्पर्श न करें। यदि करते हैं तो वे जिनाज्ञा का उल्लंघन करते हैं । किन्तु उक्त सूत्रों में कही गई परिस्थितियों में निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियां एक दूसरे के सहायक बन कर सेवा-शुश्रूषा करें तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं
१. क्षिप्तचित्त - शोक या भय से भ्रमितचित्त ।
२. दिप्तचित्त - हर्षातिरेक से भ्रमितचित्त ।
३. यक्षाविष्ट - भूत-प्रेत आदि से पीड़ित । ४. उन्मादप्राप्त— मोहोदय से पागल ।
५. उपसर्गप्राप्त - देव, मनुष्य या तिर्यंच आदि से त्रस्त ।
६. साधिकरण - तीव्र कषाय- कल से अशांत ।
७. सप्रायश्चित्त - कठोर प्रायश्चित्त से चलचित्त ।
८. भक्त - पानप्रत्याख्यात - आजीवन अनशन से क्लांत ।
९. अर्थजात - शिष्य या पद की प्राप्ति की इच्छा से व्याकुल । उन्मत्त, पिशाचग्रस्त, उपसर्गपीड़ित, भयग्रस्त निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियां एक दूसरे को सम्भालें, कलह, विसंवाद में संलग्न को हाथ पकड़ कर रोकें ।