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________________ २४०] [बृहत्कल्पसूत्र ___ भाष्यकार ने इन सभी साधनाओं के निषेध का कारण यह बताया है कि उस दशा में कामप्रेरित तरुण जनों के द्वारा उपसर्गादि की सम्भावना रहती है। निश्चित समय पूर्ण होने के पूर्व वह सम्भल कर सावधान नहीं हो सकती है। समय निर्धारित किये विना साध्वी किसी भी आसन से खड़ी रहे, बैठे या सोए तो उसका इन सूत्रों में निषेध नहीं है। भाष्य में भी कहा है वीरासण गोदोही मुत्तुं सव्वे वि ताण कप्पंति। ते पुण पडुच्च चेटें, सुत्ता उ अभिग्गहं पप्पा॥५९५६॥ वीरासन और गोदोहिकासन को छोड़कर प्रवृत्ति की अपेक्षा सभी आसन साध्वी को करने कल्पते हैं। सूत्रों में जो निषेध किया है वह अभिग्रह की अपेक्षा से किया है। वीरासन और गोदोहिकासन ये स्त्री की शारीरिक समाधि के अनुकूल नहीं होते हैं, इसी कारण से भाष्यकार से निषेध किया है। यद्यपि अभिग्रह आदि साधनाएं विशेष निर्जरा के स्थान हैं, फिर भी साध्वी के लिये ब्रह्मचर्य महाव्रत की सुरक्षा में बाधक होने से इनका निषेध किया गया है। भाष्य में विस्तृत चर्चा सहित इस विषय को स्पष्ट किया गया है तथा वहां अगीतार्थ भिक्षुओं को भी इन अभिग्रहों के धारण करने का निषेध किया है। आकुंचनपट्टक के धारण करने का विधि-निषेध ३३. नो कप्पड़ निग्गंथीणं आकुंचणपट्टगंधारित्तए वा, परिहरित्तए वा। ३४. कप्पइ निग्गंथाणं आकुंचणपट्टगं धारित्तए वा, परिहरित्तए वा। ३३. निर्ग्रन्थियों को आकुंचनपट्टक रखना या उपयोग में लेना नहीं कल्पता है। ३४. निर्ग्रन्थों को आकुंचनपट्टक रखना या उपयोग में लेना कल्पता है। विवेचन-'आकुंचनपट्टक' का दूसरा नाम 'पर्यस्तिकापट्टक' है। यह चार अंगुल चौड़ा एवं शरीरप्रमाण जितना सूती वस्त्र का होता है। दीवार आदि का सहारा न लेना हो तब इसका उपयोग किया जाता है। ___जहां दीवार आदि पर उदई आदि जीवों की सम्भावना हो और वृद्ध ग्लान आदि का अवलम्बन लेकर बैठना आवश्यक हो तो इस पर्यस्तिकापट्ट से कमर को एवं घुटने ऊंचे करके पैरों को बाँध देने पर आरामकुर्सी के समान अवस्था हो जाती है और दीवार का सहारा लेने के समान शरीर को आराम मिलता है। पर्यस्तिकापट्टक लगाकर इस तरह बैठना गर्वयुक्त आसन होता है। साध्वी के लिये इस प्रकार बैठना शरीर-संरचना के कारण लोक निन्दित होता है, इसलिये सूत्र में उनके लिये पर्यस्तिकापट्टक का निषेध किया गया है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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