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[ बृहत्कल्पसूत्र
से पानी के अचित्त होने का स्वतः निर्णय करना चाहिए एवं अचित्त हो जाए तो खाना चाहिए और सचित्त रहे तो परठ देना चाहिए।
आगमों में अनेक खाद्य पदार्थों के अंश युक्त पानी को अचित्त एवं ग्राह्य बताया गया है, अतः शीतल आहार पर गिरी हुई पानी की बूंदों के शस्त्रपरिणत होने की पूर्ण सम्भावना रहती है। जिस प्रकार गर्म आहार पर गिरी बूंदें अचित्त हो जाने के कारण वह आहार खाया जा सकता है, वैसे ही कालान्तर से वह शीतल आहार भी खाया जाए तो उसमें कोई दोष नहीं है ।
उष्ण आहार में पानी की बूंदों का तत्काल अचित्त हो जाना निश्चित है और शीतल आहार में गिरी पानी की बूंदों का अचित्त होना अनिश्चित है अथवा कालान्तर में अचित्त होती हैं। इसी कारण से सूत्र में दोनों के विधानों में अन्तर किया गया है।
पशु-पक्षी के स्पर्शादि से उत्पन्न मैथुनभाव के प्रायश्चित्त
१३. निग्गंथीए य राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणी वा अन्न पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरं इंदियजायं परामुसेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा हत्थकम्म-पडिसेवणपत्ता आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ।
१४. निग्गंथीए य राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा अन्नयरे पसुजाइए वा पक्खिजाइए वा अन्नयरंसि सोयंसि ओगाहेज्जा तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासिये परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं ।
१३. यदि कोई निर्ग्रन्थी रात्रि में या विकाल में मल-मूत्र का परित्याग करे या शुद्धि करे उस समय किसी पशु-पक्षी से निर्ग्रन्थी की किसी इन्द्रिय का स्पर्श हो जाए और उस स्पर्श का वह (यह सुखद स्पर्श है इस प्रकार ) मैथुनभाव से अनुमोदन करे तो उसे हस्तकर्म दोष लगता है, अतः वह अनुद्घातिक मासिक प्रायश्चित्त की पात्र होती है ।
१४. यदि कोई निर्ग्रन्थी रात्रि में या विकाल में मल-मूत्र का परित्याग करे या शुद्धि करे, उस समय कोई पशु-पक्षी निर्ग्रन्थी के किसी श्रोत का अवगाहन करे और उसका वह 'यह अवगाहन सुखद है' इस प्रकार मैथुनभाव से अनुमोदन करे तो (मैथुनसेवन नहीं करने पर भी) उसे मैथुनसेवन का दोष लगता है । अत: वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की पात्र होती है ।
विवेचन- ये दोनों सूत्र ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिए कहे गये हैं, यदि कोई साध्वी रात्रि या सन्ध्या के समय मल-मूत्र परित्याग कर रही हो और उस समय कोई वानर, हरिण, श्वान आदि पशु या मयूर, हंस आदि पक्षी अकस्मात् आकर साध्वी के किसी अंग का स्पर्श करे और साध्वी उस स्पर्श के सुखद होने का अनुभव करे तो वह हस्तमैथुन - प्रतिसेवना की पात्र होती है और उसे इसका प्रायश्चित्त गुरुमासिक तप बतलाया गया है।
यदि उक्त पशु या पक्षियों में से किसी के अंग उस साध्वी के गुह्य प्रदेश में प्रविष्ट हो जाएं और उससे वह रति-सुख का अनुभव करे तो वह मैथुन - प्रतिसेवना की पात्र होती है। उसकी शुद्धि के लिए गुरुचातुर्मासिक तप का विधान किया गया है ।