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________________ तीसरा उद्देशक] [१७७ ५. नो कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा कसिणाई चम्माइं धारेत्तए वा, परिहरित्तए वा। ६. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीणवा अकसिणाइंचम्माइंधारेत्तए वा, परिहरित्तए वा। ३. निर्ग्रन्थियों को रोम-सहित चर्म का उपयोग करना नहीं कल्पता है। ४. निर्ग्रन्थों को रोम-सहित चर्म का उपयोग करना कल्पता है। वह भी काम में लिया हुआ हो, नया न हो। लौटाया जाने वाला हो, न लौटाया जाने वाला नहीं हो। केवल एक रात्रि में उपयोग करने के लिए लाया जाय पर अनेक रात्रियों में उपयोग करने के लिए न लाया जाय। ५. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अखण्ड चर्म रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है। ६. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चर्मखण्ड रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है। विवेचन-साधु-साध्वी की सामान्य उपधि में वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि का कथन मिलता है। चर्म के उपकरण सामान्य रूप से तो साधु-साध्वी को रखना नहीं कल्पता है, किन्तु रोग आदि के कारण चर्म रखना आवश्यक हो तो रोमरहित चर्मखण्ड रखना कल्पता है। इसका कारण यह है कि खून या मल आदि के कपड़े बारम्बार धोने की परिस्थिति में चर्मखण्ड के उपयोग से सुविधा रहती है। रोगी को भी कष्ट कम होता है। अखण्ड चर्म का निषेध इसलिये है कि हाथ पांव आदि के विभाग से युक्त अधिक लम्बा चौड़ा चमड़ा अनावश्यक होता है। मर्यादित कटा हुआ चर्म ही उपयुक्त रहता है। सरोमचर्म में तो जीवोत्पत्ति की आशंका रहती है, अत: वह साधु-साध्वियों के लिये अग्राह्य होता है। सूत्र में जो साधु के लिये अनेक मर्यादाओं से युक्त सरोमचर्म ग्रहण करने का विधान है, इससे भी सरोमचर्म का अग्राह्य होना ध्वनित होता है। किसी साधु के चर्मरोग या अर्श आदि के कारण बैठने में या सोने में भी अत्यन्त पीड़ा होती हो तो रोमरहित चर्म की अपेक्षा रोमसहित चर्म अधिक उपयोगी होता है, इसलिये विशेष कारण से उसके ग्रहण करने का विधान किया गया है। साथ ही जीवोत्पत्ति से होने वाली विराधना से बचने के लिए कुछ मर्यादाएं कही गई हैं, जिनका तात्पर्य इस प्रकार है लुहार, सुनार आदि जो दिन भर चर्म पर बैठकर अग्नि के पास काम करते हैं, उस सरोमचर्म में कुछ समय तक जीवोत्पत्ति की सम्भावना नहीं रहती है। अतः सदा काम आने वाले, सरोमचर्म को प्रातिहारिक रूप में ग्रहण करने की आज्ञा दी गई है। ज्यादा दिन रखने पर अग्नि की गर्मी न मिलने से उस सरोमचर्म में जीवोत्पत्ति होने की सम्भावना रहती है। अतः अधिक रखने का निषेध किया गया है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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