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प्रथम उद्देशक]
[१४९ नऽन्नत्थ एगाए हरियाहडियाए, सा वि य परिभुत्ता वा, धोया वा, रत्ता वा, घट्ठा वा, मट्ठा वा, संपधूमिया वा।
४२. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को रात्रि में या विकाल में अशन, पान, खादिम और स्वादिम लेना नहीं कल्पता है।
केवल एक पूर्वप्रतिलेखित शय्यासंस्तारक को छोड़कर।
४३. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को रात्रि में या विकाल में वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन लेना नहीं कल्पता है।
केवल एक 'हृताहृतिका' को छोड़कर।
वह परिभुक्त, धौत, रक्त, घृष्ट, मृष्ट या सम्प्रधूमित भी कर दी गयी हो तो भी रात्रि में लेना कल्पता है।
विवेचन-कुछ आचार्य रात्रि का अर्थ सन्ध्याकाल करते हैं और कुछ आचार्य विकाल का अर्थ सन्ध्याकाल करते हैं। टीकाकार ने निरुक्तिकार के दोनों ही अर्थ संगत कहे हैं। अतः पूर्व प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक के अतिरिक्त रात्रि में या सन्ध्या के समय भक्त-पान ग्रहण करना नहीं कल्पता है।
यद्यपि ४२ दोषों में 'रात्रिभोजन' का निषेध नहीं है, तथापि दशवैकालिसूत्र के छज्जीवनिकाय नामक अध्ययन में 'राइभोयणवेरमण' नामक छठे व्रत का स्पष्ट विधान है। अतएव साधु को किसी भी प्रकार का भक्त-पान रात्रि में लेना नहीं कल्पता है। इसके अतिरिक्त दिन के समय भी जिस स्थान पर अन्धकार हो वहां पर भी जब साधु को भोजन ग्रहण करना नहीं कल्पता है तो अन्धकार से परिपूर्ण रात्रि में तो उसे ग्रहण करना कैसे कल्प सकता है? कभी नहीं।
शंका-उक्त छठे रात्रि-भक्त व्रत में रात में खाने-पीने का निषेध किया है, पर रात में भक्तपान को लाने में क्या दोष है?
समाधान-रात्रि में गोचरी के लिए गमनागमन करने पर षट्कायिक जीवों की विराधना होती है, उनकी विराधना से संयम की विराधना होती है और संयम की विराधना से आत्म-विराधना होती है। इसके अतिरिक्त रात में आते-जाते हुए को कोई चोर समझकर पकड़ ले, गृहस्थ के घर जाने पर वहां अनेक प्रकार की आशंकाएं हो जाएँ, इत्यादि कारणों से रात्रि में गोचरी के लिए गमनागमन करने पर अनेक दोष सम्भव हैं। अतः रात्रि में भक्त-पान लाना भी नहीं चाहिए। दशवै. अ.६ में रात्रि में आहार ग्रहण करने के दोष बताये हैं एवं निशीथ उ. १० में उनके प्रायश्चित्त भी कहे हैं।
शंका-जब रात्रि में अशनादि ग्रहण करने का सर्वथा निषेध है तो पूर्वप्रतिलेखित शय्यासंस्तारक को छोड़कर ऐसा विधान सूत्र में क्यों किया गया?
___ समाधान-उत्सर्गमार्ग तो यही है कि रात में किसी भी पदार्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिए। किन्तु यह सूत्र अपवादमार्ग का प्ररूपक है। इसका अभिप्राय यह है कि मार्ग भूलने या मार्ग अधिक लम्बा निकल जाने आदि कारणों से स्थविरकल्पी भिक्षु सूर्यास्त बाद भी योग्य स्थान पर पहुंच