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प्रथम उद्देशक]
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निशीथसूत्र उ. १ में सूत्र (धागों) से स्वयं चिलमिलिका बनाने का प्रायश्चित्त कहा है और यहां पर वस्त्र की चिलमिलिका रखना कल्पनीय कहा है अतः तैयार मिलने वाले वस्त्र से भिक्षु चिलमिलिका बनाकर रख सकता है अथवा वस्त्र की तैयार चिलमिलिका मिले तो भी भिक्षु ग्रहण करके रख सकता है। इस सूत्र में धारण करने के लिये कही गई चिलमिलिका से मच्छरदानी का कथन किया गया है और सूत्र १४ में एक प्रस्तार (चद्दर या पर्दा) द्वार के अन्दर एवं एक बाहर बांधकर बीच में मार्ग रखने रूप चिलमिलिका बनाना कहा गया है। वह दो पर्दो (चद्दरों) से बनाई गई चिलमिलिका प्रस्तुत सूत्र की चिलमिलिका (मच्छरदानी) से भिन्न है।
भाष्यकार ने प्रत्येक साधु और साध्वी को एक-एक चिलिमिलिका रखने का निर्देश किया है, जिसका अभिप्राय यह है कि वर्षा आदि ऋतुओं में जबकि डांस, मच्छर, मक्खी, पतंगे आदि क्षुद्र जन्तु आदि उत्पन्न होते हैं, तब रात्रि के समय चिलिमिलिका के अन्दर सोने से उनकी रक्षा होती है। इसी प्रकार पानी के बरसने पर अनेक प्रकार के जीवों से या विहार काल में वनादि प्रदेशों में ठहरने पर जंगली जानवरों से आत्मरक्षा भी होती है। रोगी साधु की परिचर्या भी उसके लगाने से सहज में होती है। मक्खी, मच्छर आदि के अधिक हो जाने पर आहार-पानी भी चिलमिलिका लगाकर करने से उन जीवों की रक्षा होती है। पानी के किनारे खड़े रहने आदि का निषेध
१९. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा दगतीरंसि, १. चिट्ठित्तए वा, २. निसीइत्तए वा, ३. तुयट्टित्तए वा, ४. निदाइत्तए वा, ५. पयलाइत्तए वा, ६.असणं वा, ७. पाणं वा, ८.खाइमं वा, ९. साइमं वा आहरित्तए, १०. उच्चारं वा, ११. पासवणं वा, १२. खेलं वा, १३. सिंघाणं वा परिद्ववेत्तए, १४. सज्झायं वा करित्तए, १५. धम्मजागरियं वा जागरित्तए, १६. काउसग्गंवा ठाइत्तए।
१९. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को दकतीर (जल के किनारे) पर १. खड़ा होना, २. बैठना, ३. शयन करना, ४. निद्रा लेना, ५. ऊंघना, ६. अशन, ७. पान, ८. खादिम और ९. स्वादिम आहार का खाना-पीना, १०-११. मल-मूत्र, १२. श्लेष्म, १३. नासामल आदि का परित्याग करना, १४. स्वाध्याय करना, १५. धर्मजागरिकता (धर्मध्यान) करना तथा १६. कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं कल्पता है।
विवेचन-नदी या सरोवर आदि जलाशय के जिस स्थान से ग्रामवासी या वनवासी लोग पानी भर के ले जाते हैं और जहां पर गाय-भैंसें आदि पशु या जंगली जानवर पानी पीने को आते हैं, ऐसे स्थान को 'दकतीर' कहते हैं। अथवा किसी भी जलयुक्त जलाशय के किनारे को 'दकतीर' कहते हैं।
ऐसे स्थान पर साधु या साध्वी का उठना-बैठना, खाना-पीना, मल-मूत्रादि करना, धर्मजागरण करना और ध्यानावस्थित होकर कायोत्सर्ग आदि करने का जो निषेध किया गया है, उसके अनेक कारण नियुक्तिकार, भाष्यकार और टीकाकार ने बताये हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं
१. जल भरने को आने वाली स्त्रियों को साधु के चरित्र में शंका हो सकती है।