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________________ [ बृहत्कल्पसूत्र १६. राजधानी - जहां रहकर राजा शासन करता हो वह राजधानी कही जाती है। १७. संकर - जो ग्राम भी हो, खेड भी हो, आश्रम भी हो ऐसा मिश्रित लक्षण वाला स्थान ‘संकर' कहा जाता है। वह शब्द मूल में नहीं है भाष्य में है। ग्रामादि में साधु-साध्वी को एक साथ रहने का विधि-निषेध १३२] १०. से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा, एगवगडाए, एगदुवाराए, एग-निक्खमणपवेसाए, नो कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य एगयओ वत्थए । ११. से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा, अभिनिव्वगडाए, अभिनिदुवाराए अभिनिक्खमणपवेसाए, कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य एगयओ वत्थए । १०. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को एक वगड़ा, एक द्वार और एक निष्क्रमण - प्रवेश वाले ग्राम यावत् राजधानी में (भिन्न-भिन्न उपाश्रयों में भी) समकाल बसना नहीं कल्पता है । ११. निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को अनेक वगड़ा, अनेक द्वार और अनेक निष्क्रमण - प्रवेश वाले ग्राम यावत् राजधानी में समकाल बसना कल्पता है। विवचेन - ग्रामादि की रचना अनेक प्रकार की होती है, यथा १. एक विभाग वाले २. अनेक विभाग वाले ३. एक द्वार वाले ४. अनेक द्वार वाले ५. एक मार्ग वाले ६. अनेक मार्ग वाले । द्वार एवं मार्ग में यह अन्तर समझना चाहिये कि 'द्वार' समय-समय पर बन्द किये जा सकते हैं एवं खोले जा सकते हैं। किन्तु 'मार्ग' सदा खुले ही रहते हैं और उन पर कोई द्वार बने हुए नहीं होते हैं । जो ग्राम केवल एक ही विभाग वाला हो और उसमें जाने-आने का मार्ग भी केवल एक ही हो और ऐसे ग्रामादि में पहले भिक्षु ठहर चुके हों तो वहां साध्वियों को नहीं ठहरना चाहिये अथवा साध्वियां ठहरी हुई हों तो वहां साधुओं को नहीं ठहरना चाहिये । जिस ग्रामादि में अनेक विभाग हों एवं अनेक मार्ग हों तो वहां साधु-साध्वी दोनों एक साथ अलग-अलग उपाश्रयों में रह सकते हैं। कदाचित् एक विभाग या एक मार्ग वाले ग्रामादि में साधुसाध्वी दोनों विहार करते हुए पहुँच जाएं तो वहां पर आहारादि करके विहार कर देना चाहिये अर्थात् अधिक समय वहां दोनों को निवास नहीं करना चाहिये । ऐसे ग्राम यावत् राजधानी में दोनों के ठहरने पर जिन दोषों के लगने की सम्भावना रहती है उनका वर्णन भाष्यकार ने विस्तारपूर्वक किया है। वह संक्षेप में इस प्रकार है -
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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